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त्याग का अर्थ है-वस्तु के त्याग के साथ उसके प्रति ममत्व भाव का भी त्याग करना । यह ममत्व भाव ही दुःख का कारण है ।
एक बार एक व्यक्ति के घर में आग लग गई। वह छाती पीट-पीट कर रोने लगा। आस-पास लोगों की भीड़ जमा हो गई । भीड़ में से एक व्यक्ति उसके पास आया और कहने लगा सेठ जी घबराइये मत यह मकान तो आपके बेटे ने कल ही दूसरे को बेच दिया है। लिखा-पढ़ी हो गई है पैसे भी शायद मिल गये हैं, अब यह मकान आपका नहीं है ।
मकान मालिक एकदम चुप हो गया, आँखों वह पूर्ण स्वस्थ हो गया, लोगों से कहने लगा था, व्यर्थ रो रहा था ।
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आँसू सूख गये । अरे मैं कितना मूर्ख
तभी अचानक सेठ जी का लड़का दौड़ता हुआ आया और कहने लगा - पिता जी मकान जल रहा है, और आप खड़े-खड़े देख रहे हैं? जल्दी बुझाइये ।' सेठ जी कहते हैं, मकान बिक चुका है न?
लड़के ने कहा- 'मकान बिकने की केवल बात ही हुई है, अभी तो लिखा-पढ़ी भी नहीं हुई है । अरे! यह अपना ही मकान जल रहा ।' सेठ जी फिर छाती पीटकर रोने लगे । यह ममत्व भाव ही दुःख का कारण है । जितना - जितना हमारा ममत्व बढ़ेगा, उतना - उतना दुःख भी बढ़ता जायेगा और जितना ममत्व भाव कम होगा, उतना दुःख भी कम हो जायेगा ।
जिन्हें संसार के स्वरूप का बोध हो जाता है, उन्हें यह सारी संपदा जीर्ण तृण के समान लगने लगती है। त्याग करते समय और त्याग करने के बाद भी उन्हें उसके प्रति ममत्व भाव नहीं रहता ।
"त्यागो विसर्गः” त्याग का अर्थ है - छोड़ना या देना । त्याग करते
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