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बोला-ज्यों-ज्यों शत्रु मेरे निकट आता जा रहा है, त्यों-त्यों मुझे क्रोध बढ़ रहा है । उस शत्रु को भस्म करने के लिये भीतर से प्रेरणा जग रही है। मुनिराज बोले- राजन! तुम अच्छा कर रहे हो । यही करना चाहिये | जैसे-जैसे शत्रु निकट आये, उस शत्रु को नष्ट कर देने का, उखाड़ देने का यत्न करना चाहिये । पर जो शत्रु तुम्हारे बिल्कुल निकट बैठा है, तुममे ही आ गया है, उस शत्रु का नाश तो पहले कर देना चाहिये ।
राज बोला वह कौन-सा शत्रु है जो मेरे बिलकुल ही निकट आ गया है? मुनिराज बोले- दूसरे को शत्रु मानने की जो कल्पना है, वह कल्पना तुम्हारे में घुसी हुई है । यह बैरी तुम्हारे अन्दर है । उस बैरी को दूर करो। राजा ने कुछ ध्यान लगाया, उसे समझ में आया, अरे जगत में मेरा बैरी कौन है? कोई इस जगत में मेरा शत्रु नहीं है । मैं ही कल्पना कर लेता हूँ, चष्टायें कर डालता हूँ । राजा ने शत्रुता का भाव छोड़ा, वैराग्य जागा और वहीं साधु दीक्षा ले ली । शत्रु आता है, सेना आती है और राजा को शांत मुनिमुद्रा में देखकर सब शत्रु चरणों में गिर जाते हैं। राजा अपने आत्मकल्याण में लग गया । त्याग की महिमा अचिन्त्य है । त्याग होने से बैरी भी चरणों में प्रणाम करते हैं।
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जिन्होंने धन-सम्पदा आदि परिग्रह को कर्म के उदयजनित पराधीन, विनाशिक, अभिमान को उत्पन्न करने वाला, तृष्णा को बढ़ाने वाला, राग-द्वेष की तीव्रता करने वाला, आरम्भ की तीव्रता करने वाला, हिंसादि पाँचों पापां का मूल जानकर इसे अंगीकार ही नहीं किया, व उत्तम पुरुष धन्य हैं । जिन्होंने इसे अंगीकार करके फिर इसे हलाहल विष के समान जानकर जीर्ण तृण की तरह त्याग दिया, उनकी भी अचिन्त्य महिमा है |
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