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है । अन्त में वह प्यास की बाधा से तड़प-तड़प कर प्राण दे देता है |
यही हाल हम संसारी प्राणियों का है, हम सब सुख चाहते हैं, निराकुलता चाहते हैं। भ्रम यह हो रहा है कि इन्द्रियों के भोगों में सुख मिल जायेगा, तृप्ति हो जायेगी, इसलिये यह प्राणी पाँचां इन्द्रियों का भाग बार-बार करता है, परन्तु तृप्ति नहीं होती। इन भोगों का जितना भोगो, उतनी ही तृष्णा और बढ़ती जाती है | मनुष्य का शरीर तो पुराना पड़ता जाता है, इन्द्रियां की शक्ति घटती जाती है, परन्तु भोगों की तृष्णा दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ती जाती है |
सर्व संसार क दुःखों का मूल कारण भोगों की तृष्णा है। यह प्राणी भोगों के लिय दिन-रात धन कमाता है। जब न्याय से धन नहीं आता तब अन्याय पर कमर कस लेता है, और समस्त धर्म-कर्म को छोड़ देता है। जिस मनुष्य-पर्याय से आत्म कल्याण करना था, उसको भोगों में वृथा गँवा देता है। परन्तु जो ज्ञानी पुरुष होते हैं, साधु / महात्मा होत हैं, उन्हें धन की आकांक्षा नहीं होती वे तो इसे भार स्वरूप समझत हैं।
शान्ति विलासता या ग्रहण में नहीं, त्याग में है। जितना ग्रहण, उतनी अशान्ति और जितना त्याग, उतनी शान्ति | त्याग बिना शान्ति आ नहीं सकती है। किसी भी प्रकार त्याग हो, वह निष्फल नहीं जाता है। इस त्याग स बैरीजन भी चरणों में सिर नवाते हैं। एक राजा दूसरे राजा पर चढ़ाई करने जा रहा था। दूसरा शत्रु भी चढ़ आया। रास्ते में उस राजा को एक मुनिराज के दर्शन हुये | राजा मुनिराज के पास बैठ गया, कुछ उपदेश सुना। इतने में कुछ शत्रु की सेना की आवाज कानों में आने लगी तो राजा सावधानी से तनकर बैठ गया। मुनिराज कहते हैं-राजन! यह क्या करते हो? राजा
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