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कि धर्म चाहिये धर्म चाहिये ।
यह कैसे अनुभव में आवे कि ग्रहण में दुःख है? तो आचार्य समझाते हैं - कुछ थोड़ा-सा त्याग करके देखो, तो पता चल जायेगा कि जब इतने से त्याग से इतनी शान्ति आई है, तो पूर्ण त्याग करने वाले योगियों को कितनी शान्ति आई होगी। योगी का जीवन तो सदा शान्ति के झूले में झूलता है । सब अभिप्राय की महिमा है । जब धन से अभिप्राय को हटाकर शान्ति पर लगा देते हैं, तो यह जीव कल्याण के मार्ग, त्याग के मार्ग को अंगीकार कर मुक्ति को प्राप्त कर लेता है ।
आचार्य समन्त भद्र स्वामी ने कहा है कि
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कर्मपरवशे सान्ते दुःखैरन्तरितोदये ।
पापबीजे सुखेऽनास्था श्रद्धानाकांक्षणा स्मृता ।।
सांसारिक सुखों की वांछा व्यर्थ है, क्योंकि सांसारिक सुख सब कर्माधीन हैं । कर्म का उदय कैसे परिवर्तन लायेगा, कहा नहीं जा सकता। सांसारिक सुखों की आकांक्षा दुःख लेकर आती है, और दुःख का बीज छोड़कर जाती है । ये इन्द्रियों के भोग अतृप्तिकारी, अथिर और तृष्णा को बढ़ाने वाले हैं । इनके भागने से किसी को भी तृप्ति नहीं हो सकती है । जैसे जल रहित वन में मृग प्यासा होता है, तो वह जल की खोज में दौड़ता है । वहाँ जल तो है नहीं, परन्तु दूर से उसको चमकती बालू में जल का भ्रम हो जाता है । वह जल समझकर जाता है, परन्तु वहाँ जल को न पाकर अधिक प्यासा हो जाता है । फिर दूर से देखता है, तो दूसरी तरफ जल के भ्रम से जाता है, वहाँ भी जल न पाकर और अधिक प्यासा हो जाता है । इस तरह बहुत बार भ्रम में भटकते रहने पर भी उसको जल नहीं मिलता
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