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लगा रहे हैं। उन्हें यह पता नहीं कि मेरा सारा वैभव तो मेरे ही पास है | इस अपने वैभव का पता न होन से यह बाह्य पदार्थों के पीछे दौड़ लगाता-फिरता है और दुःखी होता है। कोई भी पदार्थ इसके लिये बोझ नहीं बनता, पर यह ही उन पर-पदार्थों के प्रति नाना प्रकार की कल्पनायें करके अपने पर बड़ा बोझ मानता है। जैसे किसी सेठ का कोई नौकर ऐसी कल्पना कर ले कि मेरे ऊपर तो सेठ की जायदाद का सारा बोझ है तो वह घबड़ाता फिरता है,पर उसकी इस घबड़ाहट को देखकर लोग उसकी मजाक उड़ाते हैं। कहते हैं कि देखो इसका है कहीं कुछ नहीं, है ता सब सेठ-सेठानी का, पर कैसा यह सारी जायदाद को अपनी मानकर उसको बोझा मानता है | इसी प्रकार दुनिया क इन पर-पदार्थों को अपना मानकर हम व्यर्थ ही दुःखी होते हैं | आचार्य समझाते हैं-हे भाई! सुख-शान्ति चाहिये तो इन पर-पदार्थों से ममत्व बुद्धि का त्याग कर द | यही वह बंधन है जिसे महात्माओं ने तोड़ दिया है | तू भी तोड़ दे, तो वैसा ही हो जावे | जिस प्रकार रस ले-लेकर इन बाह्य बंधनों को स्वीकार किया है, उसी प्रकार रस ले-लेकर इनका त्याग करना होगा।
एक वह जीवन है, जिसमें से यह पुकार निकल रही है कि और ग्रहण कर, और ग्रहण कर और एक वह जीवन है, जो मूक भाषा में कह रहा है कि और त्याग कर और त्याग कर | एक वह जीवन है, जो कह रहा है कि धनादि सम्पदा में सुख है, इसमें ही सुख है, और एक वह जीवन है जो कह रहा है कि इसम ही दुःख है, इसमें ही दुःख है। एक वह जीवन है, जो कह रहा है कि इसके बिना मरा काम नहीं चलेगा और एक वह जीवन है, जो कह रहा है कि इसके रहते हुए मेरा काम नहीं चलेगा। एक वह जीवन है, जो कह रहा है कि धन चाहिये, धन चाहिये और एक वह जीवन है, जो कह रहा है
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