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रहे हैं। बताइये क्या करें? वर्णी जी बोले-आपके इस ‘पर क्या' शब्द का जवाब कल सुबह 9 बजे मिलेगा | दूसर दिन वह व्यक्ति ठीक 9 बजे आ गया। वर्णी जी अपने कमरे में चले गये । वह व्यक्ति बाला-जवाब दीजिये | वर्णी जी चुपचाप रहे, बाहर निकलकर भी नहीं आये | अब 9 बजकर 5 मिनट हो गये, वर्णी जी अंदर बैठे हूँ-हूँ कर रहे हैं। वह व्यक्ति बोला-क्या अंदर कीचड़ है, जो बाहर नहीं निकल पा रहे हो? पुनः उत्तर मिला, हूँ-हूँ | आखिर वह व्यक्ति अंदर घुस गया और देखता क्या है कि वर्णी जी एक खम्भ को पकड़े खड़े हैं। वर्णी जी उस व्यक्ति से बोले-क्या करूँ? बाहर आना तो चाहता हूँ | पर यह खम्भा छोड़ता ही नहीं है | वह व्यक्ति बोला-छोड़ दो मुट्ठी और आप मुक्त | वर्णी जी बोले-बस, यही आपके प्रश्न का उत्तर है। इसी तरह आपके स्त्री-पुत्र आदि आपको पकड़े हुये नही हैं । आप स्वयं उन्हें पकड़े हुये हैं | वर्णी जी बोल-खोल दो भइया! मुटठी और आप मुक्त | व्यक्ति स्वयं तो परिग्रह को छोड़ना नहीं चाहता और दोष पर का देता है।
पर परिग्रह में, शरीर में जब तक ममता बुद्धि लगी है, तब तक सद्बुद्धि कहाँ से आये? ये संसारी प्राणी बाह्य परिग्रहों की ओर ऐसे दौड़ रहे हैं जैसे बहकाया हुआ लड़का भागता फिरता है। किसी ने बहका दिया कि रे बटे! तेरा कान कौआ ले गया ता वह बालक दौड़ता है और चिल्लाता है-अरे! मेरा कान कौआ ले गया। अरे भाई कहाँ भागे जा रह हो? अरे! मत बोलो-मेरा कान कौआ ले गया। . ....... अरे! जरा टटोल कर देख तो सही, कहाँ तेरा कान कौआ ले गया? तेरा कान तो तेरे ही पास है? जब टटोल कर देखा तो कहा-अरे! है तो सही मेरा कान मेरे ही पास | बस उसका रोना बंद हो गया। ठीक ऐसे ही संसारी प्राणी बाह्य पदार्थों के पीछे दौड़
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