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रखता है, जो सर्व आरम्भ परिग्रहों का त्यागी है, वही वास्तविक त्यागी है।
एक त्यागी जी श्मशान भूमि में बैठे आत्मचिंतन कर रहे थे । एक राजा वहाँ से निकला और त्यागी जी से कहा तुम इतना कष्ट क्यों उठाते हो? बताओ तुम्हें क्या चाहिये, मैं तुम्हें दूँगा | उन्होंने कहा-मुझे तीन चीजं चाहिये, यदि आपके पास हों तो दे दीजिये । ऐसा तो मुझे जीना दो, जिसके बाद मरना नहीं हो । ऐसी मुझे खुशी दो, जिसके बाद दुःख न हो और ऐसी मुझे जवानी दो, जिसके बाद बुढ़ापा न आये । इस पर राजा लज्जित होकर चला गया । इन बाह्य पदार्थों में क्या-क्या विकल्प फँसा रख हैं। इनका समागम सदा नहीं रहता। हमें बाह्य वस्तुओं में बखेड़ा करने की आवश्यकता ही नहीं है | अपने ज्ञान स्वभाव को देखो और मोह ममता का त्याग करो।
श्री जिनेन्द्र वर्णी जी ने लिखा है - शरीर आदि को अपना मानकर निष्प्रयोजन इसकी सेवा में जुटे रहना अथवा इसक लिये कुछ इष्ट से दीखने वाले धनादिक अचतन पदार्थों की तथा कुटुम्ब आदिक चेतन पदार्थों की सेवा में जुटे रहना ही वह बन्धन है जो स्वयं मैंने अपने सर लिया हुआ है। कुटुम्ब आदिक वास्तव में बंधन नहीं हैं। यदि मैं इनकी सेवा स्वयं स्वीकार न करूँ, तो एसी कोई शक्ति नहीं कि जबरदस्ती मुझे इनकी सेवा करने को बाध्य कर सके । सेवक बने रहना मेरी अपनी ही भूल है। हम स्वयं त्याग नहीं करना चाहते और दोष पर को देत हैं।
एक बार एक व्यक्ति वर्णी जी के पास आया, बोला-आप महाराज बन गये हैं। हम और आप बचपन में साथी रहे हैं। अब मैं भी चाहता हूँ कि आपके साथ रहूँ, पर मैं क्या करूँ यह स्त्री-पुत्र मुझे छोड़ नहीं
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