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हम राजा के मरने से नहीं हँस रहे । जो मूर्खता वह अपने आप करने जा रहा है, उस पर हँस रहे हैं । यदि कोई उल्टी हठ करता है, तो उसके एक चाँटा इधर लगावे और एक चाँटा उधर लगावे, फिर देखें कोई कैसे हठ करता है? राजा स्वयं अपने आप प्राण दे रहा है और दुःखी हो रहा है । राजा को यह बात समझ में आ गई और उसने I सोचा कि मैं क्यों अपने प्राणों का घात करूँ? रानी से कह दिया कि मैं तुम्हें बोली नहीं सिखाता, जो कुछ तुम्हें करना हो कर लो । स्त्री के मोह में पड़कर राजा व्यर्थ ही अपने प्राण नष्ट करने वाला था । हमारी आत्मा संसार के महासागर में डूब रही है। इसका एकमात्र कारण मोह का बोझ है ।
जो भी अपना कल्याण करना चाहते हैं, उन्हें इस मोह का त्याग करना चाहिये । त्यागी की वृत्ति कैसी होती है, इसका चित्रण शास्त्रों में किया गया है। वास्तविक त्यागी वही है, जो सुख-दुःख में समता रखता हो । सुख हो तो क्या है, दुःख हो तो क्या है ?
ये दोनों सुख और दुःख आत्मा के स्वभाव से भिन्न चीजें हैं। ये विकार हैं । दुःख भी विकार, सुख भी विकार । सुख-दुःख मं सुख को अच्छा मानना और दुःख को बुरा मानना, यह अज्ञान की बात है । तत्त्व - ज्ञानी त्यागी पुरुष तो सुख-दुःख में समानता रखते हैं । उन्हें दुनिया की कोई परवाह नहीं, वह लोककीर्ति को नहीं चाहता, उसके लिये यश, अपयश में समता - बुद्धि है । वह इन बाह्य चीजों को अत्यन्त असार समझता है ।
वह तो अपने आत्मीय आनन्द में तृप्त रहता है । जो धीर-वीर विवेकी है, निन्दा और प्रशंसा में समता- - बुद्धि रखता है । वह वास्तविक त्यागी पुरुष है । जो मान-अभिमान में, शत्रु-मित्र में समान बुद्धि
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