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आत्मा का हित ध्यान ही है । इस कारण जो कर्मों से मुक्त होने के इच्छुक मुनि हैं, उन्होंन प्रथम कषायों की मंदता के लिये तत्पर होकर कल्पना समूहों का नाश करके नित्य ध्यान का ही अवलम्बन किया है ।
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हे आत्मन् ! यदि तू कष्ट से पार पाने योग्य संसार नामक महा पंक (कीचड़ ) से निकलने की इच्छा रखता है, तो ध्यान में निरन्तर धैर्य धारण क्यों नहीं करता?
हे भव्य ! यदि तेरे तत्त्वों के उपदेश से बाह्य और अभ्यन्तर की समस्त मूर्च्छा (ममत्व परिणाम ) नष्ट हो गई हो, तो तू अपने चित्त को ध्यान में ही लगा ।
हे भव्य ! यदि तू प्रमाद और इन्द्रियों के विषयरूपी पिशाच अथवा जलजन्तुओं दांतरूपी यंत्र से छूट गया है, तो क्लेशों के समूह को घात तथा नष्ट करने वाले ध्यान का आश्रय कर ।
हे धीर पुरुष ! जो तू दुरन्त संसार के भ्रमण से विरक्त है, तो उत्कृष्ट ध्यान की धुरा को धारण कर। क्योंकि संसार से विरक्त हुए बिना ध्यान में चित्त नहीं ठहरता |
जिस मुनि का चित्त कामभोगों से विरक्त होकर और शरीर में स्पृहा को छोड़कर स्थिरीभूत हुआ है, निश्चय करके उसी को ध्याता कहा है । वही प्रशंसनीय ध्याता है ।
गज कुमार की सगाई हो गई थी पर भगवान समवशरण में दिव्य ध्वनि सुनकर उन्हें वैराग्य हो गया और जंगल में जाकर दीक्षा ले ली। जब उनके ससुर को पता चला तो उन्हें बड़ा क्रोध आया, वे उन्हें ढूंढ़ते हुये उसी जंगल में पहुँच गये जहाँ वे ध्यान में लीन बैठे थे । ससुर ने उनको बहुत बुरे वचन बोले, पर वे तो ध्यान में लीन थे,
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