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(घ) मुख में सफेद रंग का एक कमल आठ पत्रों का सोचें । उन
आठों पत्रों पर क्रम से आठ अक्षरों को स्थापित करे "ऊँ णमो अरहताणं” एक-एक अक्षर पर चित्त रोकें | कभी मन्त्र पढ़ें,
कभी स्वरूप विचारें। (ङ) इसी कमल के बीच में कर्णिका में सोलह स्वरों को विचार,
उनके बीच में ही मन्त्र को विराजित ध्यायें । (5) रूपस्थ ध्यान – की विधि यह है कि समवशरण में विराजित
तीर्थंकर भगवान को ध्यानमय सिंहासन पर शोभित, बारह सभाओं स वेष्ठित, इन्द्रादिकों से पूजित ध्यावें | उनके ध्यानमय
स्वरूप पर दृष्टि लगावें | (6) छठी विधि रूपातीत ध्यान की है - इसमें एकदम से सिद्ध
भगवान को शरीर रहित पुरुषाकार शुद्ध स्वरूप विचार करके अपने आपको उनके स्वरूप में लीन करें। ध्यान तप में हम आत्मज्ञान पूर्वक अपने कर्मों की निर्जरा करने के लिए चित्त की चंचलता को रोकने का अभ्यास करते हैं | जो इष्ट-वियोग या अनिष्ट संयोग की पीड़ा से मुक्त है, जो शारीरिक पीड़ा में समताभाव रखता है, जिसे आगामी सुख-सुविधा की प्राप्ति की चिंता नहीं है और जिसका मन हिंसा, झूठ, चारी, कुशील व परिग्रह के प्रति विरक्त है वास्तव में वही ध्यान कर पाता है | ध्यान से ही कर्मों का क्षय होकर मोक्ष पद की प्राप्ति होती है।
'ज्ञानार्णव' ग्रन्थ में आचार्य शुभचन्द्र महाराज ने लिखा है -
हे आत्मन्! तू संसार क दुःख विनाशार्थ ज्ञानरूपी सुधारस को पी और संसार रूप समुद्र के पार होने क लिए ध्यानरूपी जहाज का अवलम्बन कर।
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