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6. ध्यान तप
" एकाग्र चिन्ता निरोधो ध्यानम्" । एक विषय मं
चित्तवृत्ति को रोकना ध्यान है । ध्यान के चार भेद होते हैं - आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल । इनमें से आर्त और रौद्र ध्यान संसार के हेतु हैं और धर्म और शुक्ल ध्यान मोक्ष के हेतु हैं ।
आर्तध्यान
पीड़ा से उत्पन्न हुए ध्यान को आर्तध्यान कहते हैं। इसके चार भेद हैं अनिष्ट संयोग, इष्ट वियोग, वेदना जन्य और निदान । विष, कंटक, शत्रु आदि अप्रिय पदार्थों का संयोग हो जाने पर वे कैसे दूर हों" इस प्रकार की चिन्ता करना प्रथम अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान है ।
अपने इष्ट पुत्र - स्त्री और धनादिक के वियोग हो जाने पर उसकी प्राप्ति के लिए निरन्तर चिन्ता करना, द्वितीय इष्ट वियोगज आर्तध्यान है |
वेदना के होने पर उसे दूर करने के लिए सतत् चिन्ता करना, तीसरा वेदनाजन्य आर्तध्यान है । आगामी काल में विषयों की प्राप्ति के लिए निरन्तर चिन्ता करना, चौथा निदानज आर्तध्यान है ।
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यह आर्तध्यान छठे गुणस्थान तक हो सकता है । छठे गुणस्थान में निदान नाम का आर्तध्यान नहीं हो सकता है ।
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रौद्रध्यान - क्रूर परिणामों से उत्पन्न हुए ध्यान को रौद्रध्यान कहते हैं । उसके चार भेद हैं
हिंसा में आनन्द मानना, हिंसानन्द रौद्रध्यान है ।
झूठ बोलने में आनन्द मानना, मृषानन्द रौद्रध्यान है ।
चोरी में आनन्द मानना, चौर्यानन्द रौद्रध्यान है ।
विषयां के संरक्षण में आनन्द मानना, परिग्रहानन्द रौद्रध्यान है ।
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