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यह ध्यान पाँचवें गुणस्थान तक हो सकता है किन्तु देशव्रतियों का रौद्रध्यान नरक आदि दुर्गतियों का कारण नहीं होता ।
धर्मध्यान - संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होने के लिए या विरक्त होने पर उस भाव की स्थिरता के लिए जो प्राणिधान होता है, उसे धर्म ध्यान कहते हैं ।
उसके चार भेद हैं. आज्ञा, उपाय, विपाक और संस्थान | इनकी विचारणा के निमित्त मन को एकाग्र करना धर्म ध्यान है |
सर्वज्ञ प्रणीत आगम को प्रमाण मान करके यह इसी प्रकार है, क्योंकि जिनेन्द्र भगवान अन्यथावादी नहीं हैं। इस प्रकार सूक्ष्म पदार्थों का भी श्रद्धान कर लेना आज्ञाविचय धर्मध्यान है ।
मिथ्यादृष्टि प्राणी उन्मार्ग से कैसे दूर होंगे? इस प्रकार निरन्तर चिन्तन करना उपाविचय धर्म ध्यान है ।
ज्ञानावरणादि कर्मों के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव निमित्तक फल के अनुभाग के प्रति उपयोग का होना विपाकविचय धर्मध्यान है । लोक के आकार और स्वभाव का निरन्तर चिन्तवन करना संस्थान -विचय धर्मध्यान है ।
'सहज सुख-साधन' ग्रंथ में ब्रह्मचारी श्री शीतल प्रसाद जी ने ध्यान करने की कुछ विधियाँ बताई हैं । यहाँ उनका वर्णन किया जा रहा है।
ध्यान की विधि बहुत सीधी विधि यह है कि अपने शरीर क भीतर व्याप्त आत्मा को शुद्ध जल की तरह निर्मल भरा हुआ विचार करें और मन को उसी जल समान आत्मा में डुबाये रक्खें। जब हटे, तब अर्ह, सोऽहं, सिद्ध, अरहंत - सिद्ध, ॐ, आदि मंत्र पढ़ने लगें फिर उसी में
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