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मित्र से सावधान रहना चाहिये ।
एक बार दो मित्र घूमने जा रहे थे । एक मित्र आग चल रहा था और एक मित्र पीछे चल रहा था। पीछे वाल ने देखा आगे से भालू आ रहा है। वह एक वृक्ष पर चढ़ गया और अपने मित्र से कुछ नहीं कहा | आगे वाले मित्र ने देखा कि सामने भालू खड़ा है। पीछे देखता है मित्र गायब, आपत्ति सिर पर है क्या करे? वह ध्यान व प्राणायाम का अभ्यासी था। कुंभक ध्यान में चला जाता है | भालू आकर सम्पूर्ण शरीर को सूंघता है, किन्तु मृत जानकर आगे बढ़ जाता है। दूसरा मित्र आकर के पूछता है कि क्यों, भालू तुमसे क्या कह गया? मित्र बोला-बहत अच्छी बात कह गया बोला क्या? वह बोला कि दगाबाज मित्र से दोस्ती कभी नहीं करना । मित्र शर्म के मारे पानी-पानी हो गया।
सबसे बड़ा दगाबाज हमारा शरीर है। जिस समय आत्मा को जाना हागा, चला जाये गा यह शरीर यहीं छूट जायेगा। ऐसे शरीर से ममत्व का त्याग करना, राग छाड़ना ही कार्यकारी है | अहंकार और ममकार का त्याग करना ही व्युत्सर्ग नाम का तप है। देखो, सारा संसार मैं और मेरे की उलझन में उलझा है। सारा झगड़ा ""आई एण्ड माइन” का ही है। इसे छोड़ना भी बडी तपस्या का काम है। बाह्य में धन, धान्य आदि वस्तुएँ छोड़ना आसान हैं पर अंतरंग में बैठे “मैं” और “मेरेपन” के भाव को छोड़ना आसान नहीं है। इसलिये साधना करने वाला साधक सावधानी पूर्वक अहंकार और ममत्व भाव को छोड़ने का अभ्यास करता है। जिससे चेतना में उज्ज्वलता आती है, देहासक्ति घटती है और आत्मा के वास्तविक स्वरूप के प्रति अनुराग बढ़ता है।
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