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दो तो यह आत्मा परमात्मा (निर्दोष शुद्ध आत्मा) बन जायेगी।
केवल इच्छायें ही बन्धन हैं। इच्छायें न करो तो सुखी ही हो। अच्छा देखो, शुद्ध किसे कहते हैं? शुद्ध उसे कहते हैं जिसमें इच्छायें रंचमात्र भी न हों। अन्य पदार्थों क संयोग में सुख नहीं है, दुःख नहीं है, केवल इच्छाओं के होने न होने पर ही सुख-दुःख निर्भर है |
अरे! सुविधाओं से सुख नहीं होता और न सम्पदाओं से ही सुख होता है | इज्जत से भी सुख नहीं होता | इच्छायें यदि न रहें, तो सुख होता है। कैसी भी परिस्थिति आ जाये, यदि इच्छायें कर ली तो दुःख हो गया। इच्छायं ही एक बंधन है। इन बच्चों को दखो कैसे आजाद से घूमते हैं, कोई फिक्र नहीं है। कैसे सुखी रहते हैं? पर जैसे - जैसे उनकी अवस्था बढ़ती जाती है और इच्छाओं के नाते से ही दुःख भी बढ़ते जाते हैं। यह स्पष्ट है कि दुःखों का कारण इच्छायें ही हैं। पर बड़ा कठिन प्रश्न है कि इन इच्छाओं को कैसे दूर किया जाय?
गृहस्थी में रहकर इच्छायें न हों, यह नहीं हो सकता है | इच्छायें तो होंगी ही। पर गृहस्थी में भी इस बारे में दो काम तो किये जा सकते हैं। एक तो यह कि मैं (आत्मा) इच्छारहित हूँ, ज्ञान स्वभाव वाला हूँ, यदि मैं इच्छायें न करूं और केवल जाननहार रहूँ, तो मेरा कुछ भी नष्ट नहीं हो जायेगा। पर इसे कवल ज्ञानी गृहस्थ ही कर सकता है। इसक लिये कुछ अभ्यास चाहिये, संसार से मुक्ति की भावना चाहिये, आत्मकल्याण की भीतर से भावना होनी चाहिये । गृहस्थ दूसरा यह कर सकता है कि यदि मरा इच्छा के माफिक कार्य नहीं होता, तो मैं नष्ट नहीं हो जाऊंगा मैं तो वही सत् का सत् हूँ | यदि एसा होगा तो क्या, न होगा तो क्या? ऐसी भावना बनायं और बाहरी तत्त्वों से उपेक्षा करें। इच्छाओं से ही हानि है, ये इच्छायें ही
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