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गंगा के किनारे एक साधु जी तपस्या करते थे। लोगों ने उनसे पूछा कि बाबाजी आप कितने वर्ष स यहाँ तपस्या कर रहे हैं? बाबा जी बोले चालीस वर्ष से तपस्या कर रहा हूँ | वे बड़े खुश हुये कि इतने महान तपस्वी के दर्शन करने को मिले | अचानक वहीं खड़े एक व्यक्ति ने पूछ लिया कि बाबा जी इतनी तपस्या के फलस्वरूप आपने क्या प्राप्त किया। साधु जी ने बड़े गर्व से कहा कि इस गंगा नदी को देख रहे हो कितनी बड़ी है, यदि मैं चाहूँ तो इसके ऊपर उसी प्रकार चलकर उस पार जा सकता हूँ जैसे कोई जमीन पर चलकर रास्ता पार कर सकता है। उस व्यक्ति ने फिर कहा कि आपने इसके अलावा और क्या पाया? साधुजी बड़े असमंजस में पड़ गये | बाले- यह क्या कम उपलब्धि है? वह व्यक्ति बोला-बाबाजी आपकी चालीस साल की तपस्या दो कौड़ी की रही। साधु जी गुस्से से बोले-कैसे? वह व्यक्ति बाला-यदि दो कौड़ी उस नाव वाले को देते ता वह आपको नदी पार करा देता, जिसक लिये आपने अपनी चालीस साल की तपस्या व्यर्थ बरबाद कर दी।
आशय यह है कि तपस्या का उद्देश्य कोई सांसारिक सिद्धि पा लेना नहीं होना चाहिये । तपस्या तो कर्मों का क्षय करने के लिये, अपनी इच्छाओं पर विजय प्राप्त करने के लिये करनी चाहिये | अपनी इच्छाओं पर, अपने मन पर विजय प्राप्त करने का उपाय तप है |
एक साधु बाबाजी थे। वे भिक्षावृत्ति से अपना पेट भरते थे। जिसने जो दे दिया उस प्रेम से खा लेते थे। सरस है या नीरस ऐसा विकल्प नहीं करते थे। एक बार उनके मन में दाल-बाटी खाने की इच्छा हो गई। उन्होंने किसी गृहस्थ से आटा, दाल माँगकर नदी के किनारे अपने हाथ से दाल-बाटी बनाई | जब खान के लिये बैठने लगे तो देखा पानी का बर्तन खाली है | मन में विचार आया कि पहले
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