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बात इतनी ही है कि जो काम जिस समय करना है, उसे उस समय नहीं किया जाये तो सब अव्यवस्थित हो जाता है । हमारा जीवन अव्यवस्थित क्यों है। हम अपना जीवन अच्छा क्यों नहीं बना पाते? इसका एक ही उत्तर है कि हम करने योग्य आवश्यक कार्य समय पर नहीं करते । हर बार चूक जाते है ।
जब यह जीव नरक में या स्वर्ग में होता है, तब विचार करता है यहाँ तो संयम धारण करने की पात्रता नहीं है, पर अब जब मैं मुनष्य बनूंगा, तो अवश्य संयम धारण करूंगा। पर जब वह मनुष्य पर्याय को प्राप्त करता है, तो सब भूल जाता है । हमें समय रहते अपनी इच्छाओं को नियंत्रित अनुशासित कर लेना चाहिये। अनुशासित जीवन-पद्धति का नाम ही संयम है । हमारा जीवन लापरवाही या असावधानी में गुजर जाता है, जब समय निकल जाता है, तब बाद में समझ आता है कि हम अवसर चूक गये । संयमित जीवन ही आनंददायी है । जैसे बिना ब्रेक की गाड़ी अहितकर है, ऐसे ही बिना संयम के जीवन अपने व दूसरे के लिये अहितकारी है ।
क्या खाना, कैसे खाना, कब खाना, क्या सोचना, क्या करना, क्या नहीं करना, आचार्य भगवन्तों ने संयम की इतनी ही परिभाषा बनाई है। संसार का कोई भी काम हो हम ये चार बातें ध्यान में रखें - कब? कैसे ? क्यों और क्या? क्या करना, क्या नहीं करना ? कैसे करना, कैसे नहीं करना ? क्यों करना, क्यों नहीं करना ? जो हमारे मन और इन्द्रियों का मलिन करें, वह नहीं करना और जो हमारे धर्म ध्यान में साधक हो, उसे करना । जब हम शरीर से अस्वस्थ हो जाते हैं तब तो विचार करते हैं कि ये मत खाओ नहीं तो तबियत और बिगड़ेगी और यहाँ चेतन की तबियत रोज बिगड़ रही है, उसकी हमें कोई चिन्ता नहीं है । जिस प्रकार हम शरीर की चिन्ता करते हैं, उसी
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