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________________ सम्यग्दृष्टि का लक्ष्य सदा निज आत्म द्रव्य पर होता है। एक बार श्रीराम उदास बैठ हुये थे। पिता दशरथ पूछते हैं-बेटे! तू उदास क्यों है? राम कहत हैं-हे तात्! मैं उदास नहीं हूँ, मैं तो निज में वास करना चाहता हूँ | जब भीतर की बात प्रारम्भ होती है, तो बाहर की सम्पूर्ण आवाजें आना बन्द हा जाती हैं | सिनेमाहॉल में भी खिड़कियाँ बंद करनी पड़ती हैं, तब बढ़िया चित्र दिखता है | यदि निज भगवान आत्मा में रमण करना चाहते हो तो ये पाँच इन्द्रियों की खिड़कियाँ बंद करनी पड़ेंगी। जिसकी बाहर की खिड़कियाँ बंद नहीं हैं, उसे भीतर का प्रभु दिखने वाला नहीं है। विचार करो जा उपयोग पापों में लगे, दुर्भाव में रहे क्या ऐसा मलिन उपयोग अपने ब्रह्म स्वरूप का अनुभव कर सकता है? कभी नहीं । अतः हमें अपने समय का पापों, विषय-भोगों एवं प्रमाद में व्यर्थ बरबाद नहीं करना चाहिए। बल्कि अपने उपयोग को धर्म ध्यान में लगाना चाहिए। ब्रह्मचर्य व्रत से तुरत, होवे निज का भान । विशद ज्ञान का प्राप्त कर, आप होय कल्याण || होय आप कल्याण, बनेंगे श्री क स्वामी । ला कालो क प्रकाशी, होंगे अंतर यामी ।। विशद सिन्धु कहते हैं, ब्रह्म से शिव को पाना । छोड़ जगत जंजाल, नहीं जग में भटकाना ।। अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य पर्याय को प्राप्त कर हमारा कर्तव्य है कि अपने उपयोग को धर्मध्यान में लगायें। एक बार पिता ने अपने दो पुत्रों को सम्पत्ति सौंपने के लिये उनकी परीक्षा की। दोनों को एक-एक मुट्ठी चने दिये और कहा ये चन मैं चार माह बाद वापस लूंगा | बड़े बटे ने वे चन एक सोने की डिब्बी में रख दिये और सुबह-शाम अगरबत्ती लगाता रहा | छोटे बेटे ने सोचा कि एक मुट्ठी (25)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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