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धीरे-धीरे मोक्ष महल को, बढ़ता जाउँ | विशद सिन्धु कहते हैं भैया, मोक्ष को पाना,
धन दौलत का दे खा, नहीं इस जग में लुभाना || धर्म का दशवां लक्षण है-उत्तम ब्रह्मचर्य | शुद्ध आत्मा अथवा निज देह-दवालय में स्थित परम प्रभु परमात्मा को प्राप्त करने के लिये सर्वप्रथम परिग्रह आदि पापों का त्याग करो, फिर व्रती बनकर आत्मज्ञान व आत्मध्यान का अभ्यास करो | आत्मज्ञान व आत्मध्यान के दृढ़ अभ्यासी बनने पर एवं समस्त परिग्रह का त्याग हो जाने से यह आत्मा अपने स्वभाव में आ जाती है, इसी का नाम है ब्रह्मचर्य | ब्रह्म कहते है
सच्चिदानंद भगवान-आत्मा को । 'ब्रहमणि आत्मनि चरतीति ब्रह्मचर्यम् | ब्रह्म अर्थात् आत्मा में चर्या करना, रमण करना, उसमें लीन हो जाना ब्रह्मचर्य कहलाता है। आत्मा में रमण करने का नाम ब्रह्मचर्य है और इसके विपरीत राग-द्वेषादि की कारण जा पाँच-इन्द्रिय-संबंधी विषय-वासना तथा भोग-सामग्री है, उसमें रमण करना व्यभिचार कहलाता है। ब्रह्मचर्य ही संसार से तरने के लिये नौका सदृश, सुख-शान्ति का सागर है ।
जब इन्द्रिय-विषयों में आनन्द आना बन्द हो जाता है, तब ब्रह्मचर्य का आनन्द आना प्रारम्भ होता है। जो ब्रह्मस्वरूप आत्मा में रमण करने का आनन्द है, वह इन्द्रिय-विषयों में किंचित् मात्र भी नहीं है।
यों चित्य निज में थिर भये, तिन अकथ जो आनंद लह्यो । सो इन्द्र नाग नरेन्द्रव , अहमिन्द्र क` नाही कह्यो।।
जो आत्मस्वरूप में लीन श्रमण हैं, उनकी जो अनुभूति है, वो अनुभूति भोगियों के अन्दर किंचित् मात्र भी नहीं हो सकती । अतः
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