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नही हैं। यानी आत्मा के अलावा कुछ भी अपना नहीं है, इसी भाव एवं साधना का नाम आकिंचन्य धर्म है । त्याग करते-करते जब यह अहसास होने लगे कि यहाँ मेरा कुछ भी नहीं है, तब आकिंचन्य धर्म प्रगट होता है। जहाँ कुछ भी मेरा नहीं है, वहाँ है आकिंचन्य । खालीपन, बिल्कुल अकेलापन, यह है आकिंचन्य । विश्व के किसी भी परपदार्थ से किंचित भी लगाव न रहना, आकिंचन्य धर्म है । किंचनः इति आकिंचन्यः । मेरा मेर अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, इस भाव का नाम है आकिंचन्य । देखो, हित और अहित की ये दो ही बातें हैं | अहित की बात यह है कि मैं जिस पर्यायरूप हूँ, जिस परिणमन में चल रहा हूँ, मैं यह ही हूँ, इससे परे और कुछ नहीं हूँ, यह श्रद्धा होती है तो, संसार में रुलना पड़ता है और आकिंचन्य-स्वभावी शुद्ध चैतन्य मात्र हूँ, ऐसा जिसके भाव रहता है, वह पुरुष अपनी आत्मा को प्राप्त करता है ।
आकिंचन्य धर्म का विरोधी है - परिग्रह | आकिंचन्य धर्म कहता है, परिग्रह का त्याग कर आत्मा को पवित्र बनाओ। क्या परिग्रह के संचय से किसी को शान्ति मिली है? क्या जहर खाकर कोई अमर हुआ है? नहीं, तो परिग्रह का संग्रह कर सुखी रहने की कल्पना करना, अग्नि से ठण्डक प्राप्ति की आकांक्षा के समान व्यर्थ है । इस संसार में 9 ग्रह हैं । ये ग्रह बलवान नहीं हैं, इनसे बचने की चेष्टा भले न करो पर सबसे बड़ा ग्रह है परिग्रह, इससे बचो और समस्त अन्तरंग व बहिरंग परिग्रह का त्याग कर आकिंचन्य धर्म को धारण करो ।
वीतराग जिन से मिले, जिनवाणी का सार, प्रभु चरणों की किस्ती से पार करो संसार | पार करो संसार, स्वयं आकिंचन्य पाउँ,
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