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के इच्छुक को होते हैं । जैसे-जैसे परिग्रह से परिणाम भिन्न होने लगते हैं, परिग्रह में आसक्ति कम होने लगती है, वैसे-वैसे ही दुःख भी कम होने लगता है । वैसे तो सभी वस्तुयें पहले से ही अपने आप छूटी हैं, केवल पदार्थों के संबंध में 'यह मेरा है' इस तरह का भाव लेने का नाम है ग्रहण, और 'मेरा नहीं है, इस प्रकार का भाव कर लेने का नाम है त्याग । मोक्षमार्ग में त्याग का बहुत महत्त्व है । इससे सर्व संकट दूर हो जाते हैं । धर्म की इमारत त्याग की नींव पर ही खड़ी होती है । आत्मा को पवित्र करने के लिये त्याग अत्यन्त आवश्यक है। यद्यपि आत्मा अरूपी है, अविनश्वर है, किन्तु जड़ पदार्थों की संगति से आत्मा भी वैसी ही लगने लगती है । इसलिये आत्मस्वभाव को पाने के लिये अन्तरंग एवं बहिरंग समस्त परिग्रह का त्याग करना अनिवार्य है ।
त्याग त्याग कर त्याग दूँ, सारा यह संसार । त्याग के द्वारा ही घंटे, पड़ा कर्म का भार ।। घटा कर्म का भार आत्मा निःसंग हो गयी । द्रव्य भाव अरु, नो कर्मों से मुक्त हो गयी । | विशद सिन्धु कहते हैं, त्याग नहीं कर पाए । वह चतुर्गति में, काल अनादि से भरमाये ।।
धर्म का नवमां लक्षण है- उत्तम आकिंचन्य । आचार्य कुन्द कुन्द देव ने आकिंचन्य के बारे में कहा है
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ऐगो में सासदो आदा, णाण दंसण लक्खणो । ससा में बहिरा भावा, सव्वे संजोग लक्खणा ।।
अविनाशी ज्ञान-दर्शन लक्षणों से युक्त एक आत्मा ही मेरी है । कर्मों के संयोग से होने वाले अन्य सभी भाव मुझसे बाह्य हैं, मेरे
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