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बताते हुये पं0 द्यानतराय जी ने लिखा है
तप चाहें सुरराय, करमशिखर को बज्र है । द्वादश विधि सुखदाय, क्यों न करें निज सकति सम ।।
जिस तप को देवराज इन्द्र भी चाहते हैं, जो तप कर्मरूपी पर्वतों को भेदने वाला है, वह बारह प्रकार का तप वास्तविक सुख प्रदान करने वाला है । उस तप को अपनी शक्ति अनुसार अवश्य ही करना चाहिये, क्योंकि यही संसार को छदनेवाला है ।
सक्कईतं कीरई, जं च ण सक्कई तहेव सद्दहणं । सद्दहणमाणो जीवो, पावई अजरामर ठाणं ।।
अपनी शक्ति का न छिपाकर, सभी को तपस्या अवश्य करनी चाहिये | यदि शक्ति न हो तो पूर्ण रूप से श्रद्धान करना चाहिये । जो मनुष्य तप का श्रद्धान भी करते हैं, वे जीव अजर-अमर पद को प्राप्त कर लेते हैं ।
तप से संवर कर्म का और निर्जरा होय । तप से आतम शुद्ध हो, कर्म कालिमा धोय ।। कर्म कालिमा धोय होय ये आतम पावन । जन्म मरण का मिटे, लोक से भी भटकावन || विशद सिन्धु कहते हैं, सदा सुतप ही करना ।
हो कितना ही कष्ट, कभी न उससे डरना ।।
धर्म का आठवां लक्षण है - उत्तम त्याग । त्याग का अर्थ है, मूर्च्छा का विसर्जन | पर - पदार्थों से ममत्व-भाव को छोड़ना । पर वस्तुओं के रहते ममत्व-भाव छूटता नहीं, अतः इस बाह्य परिग्रह का भी त्याग किया जाता है । परिग्रह के समान भार अन्य नहीं है । जितने भी दुःख, दुर्ध्यान, क्लेश, बैर, शौक, भय, अपमान हैं, वे सभी परिग्रह
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