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ज्यों-ज्यों भोग संयाग मनोहर, मनवांछित जन पावे |
तृष्णा नागिन त्यों-त्यों डंके, लहर जहर की आवे || जिस प्रकार किसी ने धतूरा खा लिया हो उसे सभी चीजें सोना दिखाई देती हैं, उसी प्रकार यह अज्ञानी प्राणी भोगों को सुखदायी समझता है। पर ये मनोहर प्रतीत होने वाले विषय-भोग भोगने के लिये ज्यों-ज्यां इस जीव को प्राप्त हो जाते हैं, त्यों-त्यों इसकी तृष्णा और अधिक बढ़ती चली जाती है।
इन भोगों के स्वरूप को न समझ पाने के कारण ही प्राणी भोगों की आसक्ति के कारण कर्तव्य-अकर्तव्य, नीति-अनीति सभी कुछ छोड़ देता है। __जब राजा देवरति कुमार अपनी रानी पर अधिक आसक्त होने के कारण राज्य के कार्यों की उपेक्षा करने लगा, तब प्रजा को लाचार होकर राजा से कहना पड़ा कि या तो आप राज-काज में ध्यान लगायं अथवा अगर आप रानी में ही आसक्त हैं तो राज्य छोड़कर चले जाइये।
राजा ने रानी के प्रेम के पीछे राज्य छाड़ना स्वीकार कर लिया और व दानों राज्य छोड़कर चल दिये | मार्ग में एक बगीचे में ठहर गये । कुछ देर बाद राजा भाजन का प्रबंध करने के लिये निकट वर्ती किसी शहर में चला गया। थोड़ी देर बाद बगीचे में कुँए से चरस द्वारा पानी खींचने वाले कुबड़े कुरूप काली चरण की सुरीली ध्वनि सुनकर उस पर रानी आसक्त हो गयी और उसे अपना पति बनाने के लिये बार-बार प्रार्थना करने लगी। काली ने उसे बार-बार इन्कार किया और कहा कि आप क्या बातें कर रहीं हैं? आप तो एक बड़े राजा की रानी हो, यदि राजा का इस बात का पता चल जायेगा
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