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क्षीण हो जाती है, तब उदासी छा जाती है। इन इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके इनको छोड़ने वाला एकान्त वासी ही सदा सुखी रहता है ।
मथुरालाल ने बहुत समझाया, लेकिन ब्रह्मागुलाल नहीं माने । मथुरालाल भी जिनधर्म की महिमा जान गये और भोग-वासनाओं को छोड़कर क्षुल्लक दीक्षा लेकर मुनिराज के साथ हो लिये और दयाधर्म का उपदेश संसार में दिया। ऐसे मंगल हुआ जैसे लकड़ी के साथ लोहा भी पानी पर तैर जाता है ।
जिसने भी विषय-भोगों को दुर्गति का कारण जानकर, छोड़कर संयम को धारण कर लिया, उन्होंने ही अपना आत्म कल्याण किया और जिन्होंने भोगों को प्राप्त करने की इच्छा की, वे संसार में रुलते रहे । रावण ने भोगों के लिये शान्तिनाथ भगवान के मन्दिर में बहुरूपणी विद्या सिद्ध की थी । अखण्ड ध्यान भोगों के लिये लगाया । अगर इतना ध्यान आत्मा में लगा लेता तो मोक्ष चला जाता। लेकिन भोगों की इच्छा के कारण नरक जाना पड़ा ।
इन्द्रिय-भोगों को भोगने से कभी भी शान्ति की प्राप्ति नहीं होती । उल्टी उसकी इच्छायें और बढ़ जाती हैं । भोगी प्राणी की दशा उस मक्खी-जैसी है, जो मधु के लाभ में मधुपान करती हुई उसी में चिपक कर रह जाती है । उसी भांति हम अपनी इस स्थिति से मुक्त होने के लिये छटपटा रहे हैं । किन्तु जितना प्रयास करते हैं, उतना - उतना और उसमें फँसते जाते हैं । पंडित भूधर दास जी ने लिखा है
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मोह उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले करि जाने । जो कोई जन खाय धतूरा, सो सब कंचन माने ।।
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