________________
भर्तृहरि ने तब अश्वपाल को बुलाया और उससे पूछा कि यह अमरफल तेरे पास कहाँ से आया? सत्य बता दे, तुझे क्षमा कर दूँगा । अश्वपाल ने कहा कि मुझे रानी पिंगला ने दिया था ।
भर्तृहरि को अपनी प्राण प्रिया पिंगला रानी की पाप लीला जानकर, पिंगला तथा अपने ऊपर बहुत घृणा हुई। उन्हें संसार के विषय-भोगों से वैराग्य हो गया। तब उन्होंने यह श्लोक कहा कि
याचिन्तयामि ससतं मयि सा विरक्ता, साप्यन्य मिच्छति जन सजनोन्य सन्तः । असमत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या, धिकतां च तं च मदनं च इमां च च ।।
मैं जिस रानी पिंगला की बड़े प्रेम से चिन्ता करता हूँ, उस पिंगला को मुझसे प्रेम नहीं है, मुझसे विरक्त है । वह दूसरे व्यक्ति अश्वपाल को हृदय से चाहती है, किन्तु वह अश्वपाल वेश्या में आसक्त है । वह वेश्या मुझको अच्छा समझती है । इस तरह उस रानी पिंगला को, उस स्वामी द्रोही अश्वपाल को उस वेश्या को, काम वासना को और मुझको धिक्कार है ।
इतना कहकर राजा भर्तृहरि संसार से विरक्त होकर राज-पाट को छोड़कर साधु बन गये । उन्होंने 'वैराग्य - शतक' में अपने अनुभव के रूप में बहुत सुन्दर लिखा है
—
भोगो न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः । कालो न यातो-वयमेव याता तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः । ।
हमने विषय-भोगों को नहीं भोगा, विषय-भोगों ने ही हमें भोग लिया। मैंने काल को नहीं बिताया, बल्कि मैं खुद ही बीत गया |
365