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ज्यों कोई जन खाय धतूरा, सो सब कंचन मानें । ज्यों-ज्यां भोग संयाग मनोहर, मन वांछित जन पावे,
तृष्णा नागिन त्यो-त्यों डंक, लहर जहर की आवे ।। आत्मा का इतना अनिष्ट करने वाले इन पंचेन्द्रिय विषयों को यह संसारी जीव मोह के कारण सुखदायी समझता है, जैसे कि यदि किसी मनुष्य ने धतूरा खा लिया हो, तो उसको अपनी आँखों से सभी चीजें सोना दिखाई दती हैं। ये मनोहर प्रतीत होने वाले विषय-भोग भोगने के लिये ज्यों-ज्यों इस जीव को प्राप्त होते जाते हैं, त्यां-त्यों ही लोभ-वश इसकी लालसा और अधिक बढ़ती चली जाती है, इसे तृप्ति नहीं हाती।
बनारस में एक अच्छे शिक्षित ब्राह्मण युवक ने एक बार एक बनी-ठनी यौवन-मद में चूर सुन्दरी वेश्या को दखा। वह उसे देखते ही उसके ऊपर आसक्त हो गया और उससे मिलने की तीव्र इच्छा उसके मन में जागृत हो गई। वह कुछ साहस करके निकट गया, तो उसके पहरदार से पता चला कि वेश्या से एक बार मिलन के लिये कम-से-कम 100 रू. वेश्या को भेंट करने के लिय चाहिए। सौ रुपये का नाम सुनकर वह गरीब ब्राह्मण युवक चुपचाप निराश होकर अपने घर वापिस लौट आया।
अपने घर आकर उदास होकर अपनी चारपाई पर लट गया । उसकी पत्नी ने इस उदासी का कारण पूछा, तो पहले तो उसने उदासी का कारण नहीं बताया पर उसके बहुत आग्रह करने पर उस युवक ने अपनी पत्नी से वेश्या में मन आसक्त हो जाने का सब वृतान्त सुना दिया। उसकी बुद्धिमान पत्नी ने उसे बहुत समझाया, पर उसकी समझ में कुछ नहीं आया, उसका मन उदास ही बना रहा |
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