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है इस संसार में। राजा विचार मग्न हुआ। वह अर्द्धनिद्रित सा लेटा था, विचारों में खोया था । उसी समय उसने देखा एक वृद्ध तेजस्वी पुरुष लाठी को टेकते हुए दरवाजे की तरफ जा रहा है। राजा ने फिर पूछा कि इतनी रात में तुम कौन हो? तो उसने कहा कि राजन् ! मैं सत्य हूँ । इतना सुनना था कि राजा सन्न रह गया। अभी तक राजा ने लेटे-लेटे ही लक्ष्मी, वैभव और कीर्ति से बात की थी, लेकिन जैसे ही देखा कि सत्य दरवाजे की तरफ जा रहा है, तो राजा उठा और उसके चरणों में गिर गया । निवेदन के रूप में बोला- नहीं - नहीं ऐसा कभी नहीं हो सकता। आपके पीछे ही मैंने लक्ष्मी का परित्याग कर दिया, वैभव को भी तिलांजलि दे दी, लेकिन अब तुम ही जा रहे हो । अपनी प्रतिज्ञा को निभाने के लिए ही मैंने यह सब झेल लिया, फिर भी आप हमारे महलों से जा रहे, यह कैसे संभव है? और राजा ने बड़े जोर से सत्य के पैर पकड़ लिए। जैसे ही सत्य के पैर पकड़े, सत्य ठिठक गया और अपने प्रति राजा का संकल्प समर्पण देखकर सत्य महल में लौट गया। ज्यों ही सत्य महल में लौटा पीछे से लक्ष्मी, वैभव और कीर्ति भी महलों में आ गईं। फिर राजा ने किसी की फिकर नहीं की। उसने सिर्फ इतना ही कहा मैंने सत्य का पालन किया है, मैंने सत्य के चरण पकड़े हैं। अतः लक्ष्मी, वैभव और कीर्ति तो हमारे पास रहेगी ही। जो सत्य के चरणों में पहुँच जाता है उसके चरणों में लक्ष्मी, वैभव और कीर्ति साष्टांग पड़े रहते हैं । लेकिन जो लक्ष्मी, वैभव और कीर्ति के पीछे पड़ा रहता है, सत्य उससे बहुत दूर हो जाता है। अपने जीवन में जिसने सत्य को उपलब्ध कर लिया है उसने ब्रह्म को पा लिया है। धर्म उसके जीवन में अवतरित हो जाता है ।
हमारे आचार्या ने कहा- या तो मौन रहो । यह सर्वोत्तम है ।
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