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किसी ने लिखा है-इच्छायें तो इतनी होती हैं। जितने आसमान में तार अथवा रेगिस्तान में रेत के कण | आचार्यों का कहना है-इच्छायें अनन्त होती हैं, जिनकी पूर्ति करना असंभव है | इन इच्छाओं की जितनी पूर्ति करा, ये उतनी ही बढ़ती जाती है। तभी तो कहावत है कि "आप भया बूढ़ा, तृष्णा भई जवान ।' मनुष्य अपनी इच्छाओं के कारण ही दुःखी व परेशान है। भतृहरि ने लिखा है - "तृष्णा न जीर्णा, वयमेव जीर्णा" अर्थात् तृष्णा कमजोर नहीं होती, बल्कि उसको भोगत-भोगते हमारे दाँत, कान, नेत्र तथा अन्य इन्द्रियाँ जीर्ण-शीर्ण तथा कमजार हा जाती हैं। अपने आपका तृष्वाा इच्छाओं के हवाले कर देना बिना ब्रेक वाली चलती हुई मोटर गाड़ी में बैठ जाना है | क्योंकि उसका कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी से टकराना निश्चित है | जो सुख संतोष में हैं, वह और किसी चीज में नहीं है। अतः लोभ को छोड़कर शौच धर्म को धारण करो।
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