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उत्तम सत्य
धर्म का पाँचवां लक्षण है उत्तम सत्य । जब अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ और दर्शन मोह का उपशम, क्षयोपशम या क्षय हो जाता है, तब सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। श्री क्षमासागर जी महाराज ने लिखा है, बड़ी से बड़ी सच्चाई है निष्कषाय होना । पर निष्कषाय होना इतना आसान नहीं है । जब हम इन कषायां से मौन हो जायें तभी सत्य स्वरूप को उपलब्ध कर सकत हैं ।
एक पिता चाहता था मेरे बेटे सत्य को प्राप्त कर लें । उसने अपने चारों बेटों को पढ़ने भेजा । कई वर्षों बाद जब पढ़कर लौटे, तब तक पिता अशक्त हो चुका था । वह लेटा था, पर जब उसके बेटे लौटे तो उसे लगा हमारे बेटों ने सत्य को प्राप्त कर लिया होगा, वह उनके सम्मान में खड़ा हो गया । उसने पहले बेटे से कहा- क्या सत्य को प्राप्त कर लिया? तो उसने वेद की रिचायें दोहराना शुरू कर दीं । पिता को निराशा हुई कि यह वेद की रिचाओं में सत्य ढूढ़ने निकला था। उसने दूसरे बेटे से पूछा तो उसने उपनिषद के सूत्र सुनाना शुरू कर दिये। तीसरे बेटे से पूछा, तो उसने सारे धर्मों का जो सारभूत तत्त्व था, वह कहना शुरू कर दिया । पिता निराश होकर बैठ गया । वेद की रिचायें दोहरा दीं गईं, उपनिषद के सूत्र सुना दिये गये, सभी धर्मों का सार भूत तत्त्व भी बता दिया गया, पर पिता
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