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________________ कई जन्मों में घात, हुआ तउ चेत न पाये, जरा-जरा सी बात में, लड़कर ठोकर खाए । विशद सिन्धु यह क्रोध, महा है बड़ा भयंकर, अतः क्रोध को त्याग, क्षमा का ही धारण कर || धर्म का दूसरा लक्षण है-उत्तम मार्दव। मार्दव का अर्थ है, 'मृदुता और उत्तम का अर्थ है 'श्रेष्ठ' अर्थात् जहाँ श्रेष्ठ मृदुता है, वहीं मार्दव है | मार्दव धर्म का विराधी है-अहंकार | अहंकार करना भी व्यर्थ है। अज्ञानी व्यक्ति परपदार्थों को अपना मानता है और उनका अहंकार करता है। पर घमंड के परिणाम में फल क्या होता है? लोग मुँह के सामने भले ही न कहें, परंतु परोक्ष में तो कहते ही हैं कि वह वड़ा घमंडी है, बड़ा अज्ञानी है | अहंकार उस अग्नि के समान है जो बिना ईंधन के प्रज्वलित होती है। यह आत्मा क गुणों को जलाकर भष्म कर देती है | विनय से जीवन पवित्र व उन्नतिशील बनता है, जबकि अहंकार से सदा पतन ही होता है। बड़ी-बड़ी सम्पदाओं के धनी, बड़ राजपाट के अधिकारी राज-महाराजा भी बड़ी दुर्दशा को प्राप्त हो जाते हैं। गर्व करने लायक तो यहाँ कोई बात ही नहीं हैं। गर्व करता भी कौन है? गर्व वही करता है जिसे अपनी आत्मा के ज्ञान-स्वभाव का विश्वास नहीं है | वह बाह्य दृष्टि करके गर्व करता है कि देखो मैं कितना बड़ा हूँ, कितना उच्च हूँ, अरे! जीव जाति को देखा तो प्रत्येक जीव समान हैं, स्वरूप सबका एक-सा है। रही लौकिक स्थिति की बात, सो आज जो बड़ा धनिक है, वह कल तुच्छ बन सकता है और आज जो तुच्छ है, वह कल बड़ा बन सकता है | जीवन में ता रोज परिवर्तन हा सकता है | "जा आज एक अनाथ है, नरनाथ होता कल वही | जो आज उत्सव मग्न है, कल शोक से रोता (15)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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