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तो उनकी माँ समझ गयी कि तुम लोग बनारसीदास जी के यहाँ चारी करने गये थे | जाओ, सब सामान वापिस करक आओ। वे चोर उनका सामान वापिस कर आय | वास्तव में जो ज्ञानी होत हैं, जिनका लोभ नष्ट हा गया, वे ही सुखी हैं।
शुचिता का अर्थ है-पवित्रता | किस की पवित्रता? क्या शरीर की पवित्रता? शरीर ता स्वाभाव से ही अपवित्र है, पर हम लोग शरीर को ही पवित्र करने में लग हैं | जल-स्नान से भले ही दैहिक शुद्धि हो जाये, पर आत्मिक-शुद्धि के लिय ता जप-तप के मार्ग को ही अपनाना होगा, संताष और समतारूप जल में अवगाहन करना होगा।
एक प्रसंग आता है-महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका, पाण्डवों की विजय हुई और लाभी कौरवों का विनाश । युद्ध के बाद पाण्डव आत्मशोधन हतु तीर्थयात्रा पर निकले | श्रीकृष्ण जी से भी निवेदन किया कि आप भी तीर्थयात्रा पर चलें । श्रीकृष्ण जी ने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए कहा कि मेरी ओर से मेरे प्रतिनिधि-स्वरूप इस तुम्बी को ल जाआ और तीर्थयात्रा करा लाओ | पाण्डवों ने तीर्थ यात्रा की, जगह-जगह नदियों में स्नान किया, साथ में लाई तुम्बी को भी स्नान कराया। तीर्थ यात्रा से वापस आने पर तुम्बी श्रीकृष्ण जी को वापिस सौंप दी।
श्रीकृष्ण जी ने पाण्डवों को भोजन क लिय आमंत्रित किया । भोजन में उस तुम्बी की बहुत बढ़िया खीर बनाई गयी। पाण्डव भोजन करने बैठे | खीर को चखा, तो वह बहुत कड़वी थी। एक ग्रास मुँह में गया, तो सब थूकने लगे | तब कृष्ण जी ने कहा -क्यों, क्या हो गया? यह खीर तो उसी तुम्बी की बनवायी गयी है, जो आप के साथ तीर्थयात्रा करके आई और गंगास्नान द्वारा पवित्र हा गयी
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