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थी। सभी ने कहा-यह तो बहुत कड़वी है। तब श्रीकृष्ण जी ने मुस्कराते हुये कहा-देखो, गंगा-स्नान स या बाह्य स्नान से कोई शुद्ध नहीं होता। वास्तविक शुद्धि तो लोभादि कषायों के कृश करने से हाती है। उन्होंने अर्जुन का उपदेश दिया -
आत्मा नदी संयम पुण्य तीर्था, सत्योदका शीलतटा दयोर्मिः | तत्राभिषेक कुरु पाण्डुपुत्र, न वारिणा शुद्धयति चान्तरात्मा ।।
संयम ही जिसका पवित्र घाट है, सत्य ही जिसमें पानी भरा है, शील ही जिसके तट हैं और दयारूपी भँवरं जिसमें उठ रही हैं, ऐसी आत्मारूपी नदी में, हे अर्जुन! अभिषेक करो, क्योंकि पानीमात्र से अन्तरात्मा शुद्ध नहीं होती।
जैसे मैले कपड़े पर साबुन लगाने से कपड़े का मैल हट जाता है और कपड़ा साफ हो जाता है, इसी प्रकार आत्मा पर जो द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म रूपी मैल विद्यमान है, उसको सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से हटाने पर आत्मा पवित्र हा जाता है। राग-द्वष रूपी कीचड़ में फँसी आत्मा को निकालने को कवल एक ही मार्ग है, कि श्रावक एक के बाद दूसरी, दूसरे की बाद तीसरी आदि प्रतिमाओं को लेकर अच्छे स श्रावकधर्म की साधना पूर्ण कर, सम्पूर्ण आरंभ-परिग्रह को छोड़कर अपनी चर्या का निर्दोष पालन करता हुआ मुनिव्रत को धारण करके रत्नत्रय की साधना करे |
यह रत्नत्रय की साधना एक एसी बुहारी है जो इस आत्मा को बुहार कर साफ कर देती है, राग-द्वेष आत्मा से निकल जाते हैं, आत्मा वीतराग हो जाती है | यही सच्ची शुचिता है। इस जगत के बंधनों का त्याग करने पर शौच-धर्म प्रकट हाता है। बस, यही तो धोखा है कि हमने परपदार्थों को अपना मान रखा है। आचार्य कहते
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