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मिलते हैं पर हाथ कुछ नहीं आता । एक उदाहरण है -
एक व्यक्ति को किसी देवता ने प्रसन्न होकर एक शंख दे दिया। उस शंख की तासीर थी कि नहा-धोकर शंख फूंको, फिर उसके सामने जितनी इच्छा करो उतना मिल जाता था। उसका तो बड़ा मजा हो गया। बस, नहा धोकर शंख फूंका और आकांक्षा की कि हजार रुपय दो, तो हजार रुपये मिल गय | एक दिन बाजूवाले ने देख लिया | बस, गड़बड़ यहीं से शुरू होती है कि बाजू वाला अपने को देख या अपन बाजूवाले का देखें | बाजूवाले ने सोचा कि यह शंख तो अपने पास होना चाहिये । जो-जो अपने पास है हमें वह नहीं दिखता है। जो अपने पास है वह दसर को दिखता है। सीधा सा गणित है - जा अपने पास है, वह दिखने लगे तो सारा लोभ नियंत्रित हो जाये | नहीं, सारे संसार में जो चीजें हैं, वे सब आसानी से दिखाई पड़ती हैं, पर मैंने क्या हासिल किया – मुझे, यह दिखाई नहीं पड़ता। और एक असन्ताष मन के अन्दर निरन्तर बढ़ता चला जाता है। व्यक्तिगत असन्ताष, पारिवारिक असन्तोष, सामाजिक असन्तोष-कितने तरह के असन्तोष हमारे जीवन का इतनी-सी बात से घेर लेत हैं कि मेरे पास जा है उसे मैं नहीं देखता हूँ, दूसरे के पास जो है वह दिखाई देता है मुझे ।
हाँ तो, बाजूवाल ने देखा कि इसके पास बढ़िया शंख है। तो उसने भी एक बाबाजी से शंख ले लिया। पर उस शंख से मिलता कुछ नहीं था। उसक सामने जितना माँगो वह उससे दुगना देन को बोलता था | उसने पड़ोसी से कहा – सुना! मुझे भी एक बाबाजी ने शंख दिया है।
कैसा शंख? पड़ासी ने पूछा ।
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