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होता है समाज में अपनी प्रतिष्ठा का । वित्तेषणा, पुत्रेषणा, लोकेषणा ये तीनों लोभ के प्रकार हैं। बस इन्हीं से सारा संसार बना है । हमें विचार करना चाहिये कि हम इन तीनों को नियंत्रित कर सकें तो हमारा मन उतना ही उज्ज्वल हो जायेगा, उतना ही निर्मल हो जायेगा। किसको नहीं मालूम कि लोभ से सिवा दुर्गति के आज तक और क्या हुआ है ? सबको मालूम है। लोभ पूरी जिन्दगी नष्ट कर देता है ।
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हम विचार करें कि मैं लोभ को किस तरह से नियंत्रित करूं? मैं लोभ को कैसे जीत सकूँ? मेरे जीवन में यह संस्कार अनादिकाल का है कि जो चीज दिखाई पड़ती है उसी को ग्रहण करने का भाव मेरे अन्दर उत्पन्न हो जाता है, उस स्थिति में मैं क्या करूँ? जबकि वह चीज हमारे ज्यादा काम की नहीं है, उल्टे वह मेरे अहित में कारण बनेगी, इतना भी जानता हूँ मैं । फिर जान-बूझकर कैसे अंधा हो जाता हूँ ? इस पर विचार करें। पहले घर में एक गाड़ी थी, बाहर खड़ी रहती थी, ज्यादा चिंता नहीं थी। अब एक गाड़ी और लेकर आये हैं । जब तक गैरेज नहीं बनता तब तक वह बाहर ही खड़ी है, तो रात में जब नींद खुलती है, 2-3 बार तब बालकनी से झांककर देखना पड़ता है कि गाड़ी खड़ी है कि नहीं खड़ी? एक आफत हो गई सोच तो रहे थे कि आसानी हो जायेगी। पर ये तो एक आफत मोल ले ली ।
विचार करो पहले घर में चार चीजें थीं, तो शांति से उनमें ही जीवन चलता था और अब चार सौ हैं तो भी मन शान्त नहीं है । इसके बाद भी मन अशान्त है ।
लोभ की तासीर ही यह है कि आशायं बढ़ती हैं, आश्वासन
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