________________
कुछ भी प्राप्त नहीं होता, न ही लौकिक वस्तुयें और न अलौकिक वस्तुयं । अतः समस्त प्रकार के लोभ को छोड़कर उत्तम शौचधर्म को धारण करो ।
इस अपवित्र शरीर से भिन्न जो शुद्ध आत्मा का ध्यान करके उसी में रत रहता है तथा जो 'मैं सदा शुद्ध-बुद्ध हूँ, निर्मल हूँ, शुद्ध चैतन्य मात्र हूँ, पर द्रव्य परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है । इस तरह हमेशा अपने अंदर-ही-अंदर ध्यान करता है, उसके शौच धर्म होता है । आत्मा का स्वरूप ही शौच धर्म है । इसलिये ज्ञानी महामुनि इसी का ध्यान करते हैं ।
लोभ की यह तासीर है जितना लाभ बढ़ता है उतना लोभ भी बढ़ता जाता है | श्री क्षमासागर महाराज से गोटेगाँव के एक सेठ जी बता रहे थे कि हमने पेंसठ रुपये से दुकानदारी शुरू की थी । हमें बंटवारे में इतने ही रुपये मिले थे | फिर हमारे अच्छे कर्म का उदय आया वे पैंसठ रुपये पहले पैंसठ सौ हुए फिर पैंसठ हजार हो गये । आज पैंसठ लाख हो गये, पर मन में भावना है कि वे बढ़कर पैंसठ करोड़ हो जायें । वे खुद कह रहे थे कि महाराज! पहले धर्मध्यान करने के लिये मेरा बहुत मन करता था, समय भी होता था लेकिन आज मेरे मन में धर्मध्यान करने का भाव थोड़ी देर को आता है पर मेरे पास समय नहीं हैं। पहले मैं रुपया कमाता था, पर अब तो मैं रुपया कमाने की मशीन हो गया हूँ। उन्हें इस बात का दुःख होने के बावजूद भी अब बहुत मुश्किल है कि वे बच सकें, क्योंकि लोभ की तासीर है कि जैसे-जैसे लाभ बढ़ता है, वैसे-वैसे लोभ और बढ़ता जाता है।
दूसरा लोभ होता है अपने पुत्र और परिवार का तीसरा लोभ
266