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उत्तम शौच
धर्म का चौथा लक्षण है उत्तम शौच । शुचेर्भावः शौचं अर्थात् स्वच्छता, निर्मलता, उज्ज्वलता यह अर्थ है इस शौच शब्द का । वस्त्र मलिन था, वह मलिनता निकल गयी उज्ज्वलता, स्वच्छता आ गयी उसके स्थान पर, यही है शुचिता । धब्बा लगा हुआ था, वह निकल गया और जो रह गया, वह है स्वभाव । शौच धर्म ही हमारा स्वभाव है ।
जिस प्रकार क्षमा धर्म का विरोधी क्रोध है, मार्दव धर्म का विरोधी मान है, आर्जव धर्म का विरोधी माया है, उसी प्रकार इस शौच धर्म का विरोधी लोभ है । लोभ समस्त पापों का जन्मदाता है । यह अति सूक्ष्म है तथा अनेक रूपों में अभिव्यक्त होता है। धन का लोभ, यश का लोभ, परिग्रह संचय का लोभ, पद का लोभ आदि । जो समस्त प्रकार के लोभ से दूर रहता है, वह पवित्र हृदय वाला व्यक्ति माना जाता है।
जहाँ पवित्रता होती है, उसे शौच धर्म कहते हैं । पवित्रता वहाँ ही आ सकती है, जहाँ किसी भी अनात्मतत्त्व में मोह न हो । भिन्न पदार्थों में मोह होने को गंदगी कहा है, लोभ को गंदगी कहा है। क्रोध, कषाय अवश्य है, पर वह गंदगी नहीं है । घमण्ड भी कषाय है, पर उसे अशुचि शब्द से नहीं कहा और मायाचार तो महा बेवकूफी
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