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है, उसे भी अशुचि नहीं कहा, पर लोभ को अशुचि शब्द से कहा। जिसके हृदय में लोभ बसा है, वह अपवित्र है, गंदा है। यह जीव संसार में जन्म-मरण कर रहा है | कारण यह है कि पर वस्तुओं में आत्मबुद्धि लग रही है। शरीर मैं हूँ, यह वैभव, ये मकान दुकान मरे हैं, यह हृदय की अपवित्रता है |
उत्तम शौच गुण तो आत्मा का एक पवित्र गुण है। इस गुण को प्रगट करने के लिये समस्त परपदार्थों का लोभ छोड़ना होगा और अपने उस निर्लोभ स्वरूप की उपासना करनी होगी, तभी शौच धर्म प्रगट होगा। एक लकड़ी बेचने वाला गृहस्थ था | उस पुरुष का नाम था राँका और उसकी स्त्री का नाम था बाँका। दोनों ही पति-पत्नी लकड़ियाँ बीनने जा रहे थे। राँका आगे जा रहा था और बाँका पीछे थी। रास्ते में राँका को रुपयों से भरी थैली मिली, पैर से ठोकर लगी तो रुपये खनक गये | वह समझ गया कि इसमें तो काफी रुपये भरे हैं । वह उस पर धूल डालने लगा कि कहीं इस थैली को देखकर मेरी स्त्री को लोभ न आ जाये । इतने में ही बाँका भी वहाँ आ पहुँची। पूछा कि यह क्या कर रहे हो? तो राँका बोला कि इस रुपयों की थैली पर धूल डाल रहा हूँ | तब बाँका बोली-अरे! तुम धूल पर क्या धूल डाल रहे हो? छाड़ो आगे बढ़ो। ता देखिय उस स्त्री और पुरुष दोनों की दृष्टि में वह धन धूलवत् था । यहाँ यह शिक्षा दी गई है कि यदि आपका अपने अंदर शौच धर्म को प्रकट करना है, तो यहाँ के दिखने वाले इन पौद्गलिक ढरों को धूलवत समझो और अपने मन को पवित्र बनाओ।
बन्धन व मुक्ति दोनों का मूल कारण मन है | जिनवाणी मन में तभी प्रवेश करेगी जब मन स्वच्छ होगा, लोभ रहित होगा। मन की शुद्धि शौच धर्म के माध्यम से होती है। जिसका मन पवित्र हो गया,
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