________________
सोचकर वह अपना घरबार छोड़कर, साधु बन कर उसी वन में आ बैठा।
जब उसके भोजन का समय हुआ, तो देव उसके सामने ज्वार-बाजरे की रोटी खाने क लिए ले आये | अपने सामन ज्वार-बाजर की रोटियाँ देखकर उस गड़रिया साधु का मन जल-भुन गया । उसन क्रुद्ध स्वर में कहा कि देखो, देव लोग भी मायाचारी, पक्षपात करते हैं। किसी साधु को स्वादिष्ट भोजन खिलाते हैं और किसी को सूखी ज्वार-बाजर की राटियाँ देते हैं।
उसी समय आकाशवाणी हुई कि जो जैसा त्याग करता है, वह वैसा ही फल पाता है। वह साधु बिना भोजन की इच्छा के ईमानदारी से राजपाट छाड़कर, स्वादिष्ट भोजन छोड़कर साधु बना था, इसलिये उसको स्वादिष्ट भोजन मिलते हैं। तू अच्छे भोजन की इच्छा से, मायाचारी से ज्वार-बाजरे की रोटियाँ छाड़कर साधु बना है इसलिए तुझे ज्वार-बाजरे की रोटियाँ मिल रही हैं। जो जैसा करता है, वह वैसा फल पाता है।
'वृहदारण्यक उपनिषद्' की भूमिका में लिखा है कि जिस समय याज्ञवल्क विरक्त हुआ और अपनी सारी सम्पदा पत्नी को देने लगा, तो पत्नी पूछती है कि आप जो कुछ दे रह हो, इस सम्पदा से क्या मैं अमर हो जाऊँगी? तो याज्ञवल्क ने उत्तर दिया कि नहीं। तब उसने कहा कि मैं जिस तरह अमर हो सकूँ, मुझे तो वह चीज दीजिये | इस सम्पदा से मुझ क्या प्रयोजन? तब फिर उस अध्यात्म का उपदेश दिया गया ।
आर्जव धर्म वहाँ है, जहाँ कुटिल परिणाम का त्याग हा जाता है। जहाँ ज्ञान स्वरूपी यह आत्मा उपयोग में हो, वहाँ आर्जव धर्म हाता
(222