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हृदय में धर्म के वास्तविक स्वरूप को प्रविष्ट नहीं होने देता | व्यक्ति अपने अहंकार की पूर्ति के लिये जीता है, और इसी खातिर मर जाता है | 'मैं भी कुछ हूँ' बस इसी की पुष्टि के लिये वह जीवनपर्यन्त संघर्षरत रहता है। परिणाम स्वरूप वह अशुभ कर्मों का आस्रव करता है और अपनी इस दुर्लभ मनुष्य पर्याय को व्यर्थ ही समाप्त कर देता है। ___ 100-50 लोगों में झूठी ख्याति का मान करना ठीक नहीं है। जरा विश्व में दृष्टि पसारकर तो देखो कि कौन जानता है तुम्हें? और ये 100-50 लोग भी कब तक साथ रहेंगे? 25-30 साल बाद तो यहाँ से अकेले ही जाना पड़ेगा। आगे की अनन्त यात्रा में य कोई साथ नहीं देंग | हम लाग दुनिया के झूठे अभिमान के प्रदर्शनार्थ व्यर्थ बरबाद होते हैं | जो अभिमान रखता है, वह अपने आपका ही बरबाद करता है | अतः मरी आन, मेरी शान, मेरा रूप, मेरा धन, मेरा वैभव, मेरी जाति, मेरा कुल, मेरा व्रत-तप, मेरी समृद्धि इत्यादि रूप अहंबुद्धि को छोड़कर मार्दवधर्म को धारण करो।
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