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ग्रहण करना ठीक नहीं है । धर्म तो तभी आयेगा, जब अहंकार का विसर्जन होगा। जब भी देव - शास्त्र - गुरु के पास जायें तो अहंकार को बाहर ही छोड़ देना चाहिये ।
प्राचीन मंदिर में देखेंगे तो द्वार छोटा मिलेगा। मूर्ति तो 18 फुट की होगी, पर द्वार 3 फुट का, ताकि आप मंदिर में प्रवेश करो, तो झुको । झुके बिना भगवान के दर्शन संभव नहीं । धर्म के सम्पूर्ण पाठों में प्रथम पाठ झुकना बतलाया है। अभिमान का विसर्जन ही जीवन में धर्म का सूत्रपात है ।
पर आजकल कोई भी झुकने को तैयार नहीं है। आज तो एक विद्वान् भी दूसरे विद्वान् को नीचा दिखाने हेतु प्रयत्नशील रहते हैं । ऐसे ही दो विद्वान् थे, जिन्हें अहंकार की बीमारी थी । वे सदा एक दूसरे को गिराने की भावना रखते थे। एक बार दोनों विद्वानों को राजा ने राज्यसभा में सम्मान के लिये बुलाया। दोनों उपस्थित हुये । राजा ने पहले विद्वान् से कहा- आप स्नान आदि करके तैयार हो जाइये एवं दूसरे से चर्चा प्रारंभ कर दी। राजा बोले- 'जो आपके साथी हैं, वे बड़े ही सुविख्यात विद्वान् हैं । उनकी ख्याति चारों ओर फैल रही है।' उस विद्वान् को साथी विद्वान् की प्रशंसा सहन नहीं हुई। उसने कहा- 'राजन् ! वह विद्वान् नहीं, बैल है। उसे कुछ भी ज्ञान नहीं है ।' तब तक वे विद्वान् महोदय स्नान करके आ गये । उसी प्रकार जब दूसरे विद्वान् स्नान क्रिया को गये तब राजा ने उस विद्वान् की प्रशंसा प्रारंभ कर दी । तब दूसरा विद्वान् बोला- 'राजन्! वह तो अनपढ़ है । न बाप पढ़ा, न उसके बाप का बाप । वह तो गधा है।' इस प्रकार राजा ने दोनों का परिचय ले लिया । एक दूसरे की बुराई - कटाई में दोनों ने अपना परिचय दे दिया । व्यक्ति का परिचय व्यक्ति की भाषा एवं विचार हैं । जब वे भोजन करने बैठे तो राजा ने
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