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राजा दशरथ और जनक का सिर ही न रहने दूँगा, फिर कहाँ से पुत्र होगा और कहाँ से पुत्री होगी? मेरे भाई की जान बच जायेगी । यह समाचार दोनों जगह विदित हो गया। तो इनके मंत्रियों ने ठीक उन्हीं का शक्ल का लाख का पुतला किसी प्रकार बनवा दिया और ये दोनों गुप्त हो गये। कई महीनों तक प्रयास करके विभीषण ने उन दोनों का (पुतलों का ) सिर काट लिया और समुद्र में फेक दिया और रावण को हर्षमयी समाचार सुनाया । अब राजा दशरथ और जनक, ये दोनों मरे तो थे नहीं । होनहार बचने का था, सो बच गये। अंत में हुआ भी वही सीताजी के हरण के प्रसंग को लेकर रावण और राम में महायुद्ध ठन गया। रावण की वहाँ मृत्यु हुई । तो जो विभीषण रावण को इतना प्यारा था वह सीताजी का हरण किये जाने से रावण का साथ छोड़ देता है । रावण बड़ा विद्वान था पर जब उसने परस्त्री के हरण का अपराध किया तो सगे भाई ने ही उसे बुरा कहा और उसका साथ छोड़ दिया । मान कषाय छूटे तो शान्ति का मार्ग मिलेगा अन्यथा संसार में भटकना ही बना रहेगा ।
अहंकार करने से सदा पतन ही होता है। मुक्त वही हो सकता है, जिसने इस मानकषाय को छोड़कर मार्दवधर्म को जीवन में धारण किया । जो विनयवान् होता है, उसी के अंदर मार्दवधर्म आ सकता है । जिनके अंदर मार्दवधर्म होता है, उन्हें कभी भी नाम की चाह नहीं होती ।
दिल्ली में लाला हरसुखराय ने सन् 1807 में एक दर्शनीय एवं भव्य जैनमंदिर बनवाया था, जिसकी उस समय की लागत 8 लाख रुपये थी। यह मंदिर 6 वर्ष में बनकर तैयार हुआ था। एक दिन लोगों ने देखा कि मंदिर का सारा काम पूर्ण हो चुका है, केवल
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