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शिखर का एक-दो दिन का काम बाकी है; किन्तु काम बंद पड़ा है। लाला हरसुखराय जो सर्दी गर्मी बरसात में हर समय मजदूरों के बीच में खड़े होकर के काम करवाते थे, व आज वहाँ नहीं हैं।
लोगों का अनुमान लगाते देर न लगी कि जब हर मुस्लिम राज्य में पुराने जैन मन्दिरों की रक्षा करना मुश्किल हो रहा है, तब नया जैनमंदिर कौन बनने देगा? फिर शिखरबंध मंदिर कैसे बन सकता है? किसी ने कहा-अरे भाई! लाल जी का क्या बिगड़ा? वे तो मुँह छिपाकर घर बैठे हैं, नाक तो हमारी कटी | भला हम किसी का क्या मुँह दिखायेंगे? इस दुर्दशा से तो अच्छा यही था कि नींव ही नहीं खुदवाते ।
जिन्हें धर्म से अनुराग था, उन्होंने सुना तो अन्न-जल का त्याग कर दिया और अपना दुःख ले कर लाला हरसुखराय के पास पहुँचे
और बोले-आपके रहते जिनमंदिर अधूरा पड़ा रह जाय ता समझो कि भाग्य ही हमारे प्रतिकूल है। आप तो कहते थ कि बादशाह सलामत ने शिखरबंध मंदिर बनवाने की इच्छा प्रकट की है, फिर शिखर अधूरा रहने का रहस्य क्या है? सेठजी मुँह लटकाकर सकुचाते हुये बोले-भाइयो! अब पर्दा रखना ठीक नहीं है। दरअसल यह बात है कि मेरी जितनी सामर्थ्य थी, वह मैंने पूरी कर दी और मैं कर्ज लेने का आदी नहीं हूँ | अतः सोचता हूँ कि समाज से चंदा इकट्ठा कर लूँ, मगर कैसे? हिम्मत नहीं हो रही है।
यह सुनकर सभी बोल पड़-बस, लाला जी साहब! इतनी-सी बात है? ऐसा कहकर एक सज्जन ने अशर्फियों का ढेर लगा दिया और कहा कि आप चंदा माँगने जायेंगे? धिक्कार है जो हम आपको चँदा माँगने भजें। तब लाला हरसुखराय बोल-अब इस मंदिर में जो
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