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को अपने रूप देखोगे, उतना - उतना राग, द्वेष, मोह बढ़ेगा और जितना हम शरीर को स्वयं से अलग देखेंगे, मोह पिघलने लगेगा |
मोह आत्मा को मोहित करता है, मूढ़ बनाता है । यह आत्मा के वीतराग भाव तथा शुद्ध स्वरूप को विकृत करता है, जिससे आत्मा राग-द्वेषादि विकारों से ग्रस्त हो जाता है । संसार - भ्रमण का मूल कारण यह मोह ही है । मोह, असंयम, पाप ये सब मदिरा के समान हैं, इनमें नशा होता है, जिसमें आसक्त होकर यह संसारी प्राणी अपनी ही आत्मा का अहित करता है ।
एक बार एक राजा हाथी पर बैठकर शहर में घूमने गया । उसे रास्ते में एक कोरी मिला। कोरी ने मदिरा पी रखी थी, इसलिये वह होश में नहीं था। राजा को देखकर वह बोला - ओब रजुआ ! हाथी बेचेगा क्या? राजा को सुनकर बड़ा गुस्सा आया, यह कोरी कैसे मेरे हाथी को खरीदेगा? मंत्री जी साथ में थे उन्होंने राजा को समझाया - यह को नहीं बोल रहा है, कोई और बोल रहा है। अभी वापिस राजदरबार में चलते हैं, इसे वहीं बुलायेंगे, आप वहाँ ही इस दण्ड देना । कुछ देर बाद राजा राजदरबार में पहुँचा । वहाँ उसने कोरी को बुलवाया । तब तक कारी का नशा उतर चुका था, वह होश में आ चुका था । ज्यों ही वो राजा के सामने लाया गया तो राजा कहता है कि तू रास्ते में क्या कह रहा था? मेरा हाथी खरीदगा? काँपने लगा बेचारा । बोला- महाराज ! आप यह क्या कह रहे हैं? मैं हूँ गरीब आदमी और आप राजा, आपका हाथी मैं कैसे खरीद सकता हूँ? मंत्री कहता है राजन! अब यह कोरी होश में है । वहाँ जो हाथी खरीदने को कह रहा था, वह यह नहीं था, वह कहने वाला तो मदिरा का नशा था, अब इसके नशा नहीं रहा । इसी तरह हम और आप सब प्रभु की तरह पवित्र हैं, हमें स्वयं अपना परिचय नहीं, यह सब मोह का नशा है । इसलिये अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण करना पड़ रहा है ।
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