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जब जीव को आत्मा और आत्मा से भिन्न परद्रव्यों का ज्ञान हो जाता है अर्थात् मैं शरीरादि से भिन्न अखण्ड, अविनाशी, चिदानन्द, शुद्धात्मतत्त्व हूँ, ये शरीरादि मेरे नहीं हैं, न ही मैं इनका हूँ, तब उसे पर से भिन्न निज आत्मा की रुची पैदा हो जाती है और संसार, शरीर, भोगों से अरुचि पैदा हो जाती है और वह हमेशा आत्म-सन्मुख रहने का पुरुषार्थ किया करता है। उसकी राग-द्वेष से निवृत्ति के लिये सम्यक्चारित्र धारण करने की भावना प्रबल हो जाती है।
परमार्थ से आत्म शान्ति का उपाय यही है कि सम्यकचारित्र को धारण कर पर-संबंध को छोड़ा जाय और आत्म परिणति का विचार किया जाय | आत्मा अपने ही अपराध से संसारी बना है, और अपने ही प्रयत्न से मुक्त होता है। जब यह आत्मा मोही, रागी, द्वषी होता है तब स्वयं संसारी हो जाता है तथा जब राग, द्वेष, मोह को छोड़ देता है तब स्वयं मुक्त हो जाता है। अतः जिन्हें संसारबंधन से छटना है, उन्हें उचित है कि निज को निज व पर को पर जानकर फिर पर को छोड़ कर निज में लीन रहें ।
___ चारों गतियों के जीव दुःखी हैं और इस दुःख स छुटकारा तब तक नहीं हा सकता जब तक कि माक्ष की प्राप्ति न हा । आत्मा और समस्त कर्मों (द्रव्य कर्म, भावकर्म, नोकर्म) का पूर्ण रूप से पृथक होना ही मोक्ष कहलाता है। मोक्ष प्राप्ति के उपायों का वर्णन करत हुये आचार्यों ने सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र की एकता का वर्णन किया है। जब तक ये तीनों एक साथ प्रकट नहीं हो जाते, तब तक मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है। इसलिये मोक्ष की प्राप्ति के इच्छुक प्रत्येक जीव को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यकचारित्र को प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील रहना चाहिये ।
जब स जीवन में धर्म की शुरूआत हा, तभी से उसका जन्म हुआ
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