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नहीं चल जाता कि इन सुन्दर दानों के नीचे जाल बिछा हुआ है। इसी प्रकार इस संसार चक्र में व्यक्ति उसी समय तक फँसता है, जब तक कि उसे यह पता नहीं चलता कि इन सुन्दर आकर्षणों तथा प्रलोभनां के नीचे माया छिपी हुई है। जिस प्रकार यह जानकर कि यह तो जाल है, पक्षी उस पर फैले हुय दानों का लालच नहीं करते और उसमें फँस नहीं पाते, इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव जब समझ जाता है कि यह बाह्य जगत केवल माया है, प्रपंच है, धोखा है, तो वह उसमें यत्र-तत्र फैले हुये प्रलोभनों का लालच नहीं करता और उसमें फँस नहीं पाता | मिथ्यात्व का फल संसार है और सम्यक्त्व का फल मोक्ष है| जीवों को सम्यग्दर्शन क समान कल्याण करने वाला तीन काल और तीन लोक में अन्य कोई नहीं है तथा मिथ्यात्व के समान अकल्याण करने वाला तीन काल और तीन लाक में अन्य कोई नहीं है । 'पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय' ग्रंथ में आचार्य अमृतचन्द्र महाराज ने लिखा है - समस्त उपायों से, जिस प्रकार भी बन सके वैसे मोह को छोडकर सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिये। इसके प्राप्त होने पर अवश्य ही माक्षपद प्राप्त होता है और इसक बिना सर्वथा मोक्ष नहीं होता। यह स्वरूप की उपलब्धि का अद्वितीय कारण है, अतः इसे अंगीकार करने में किंचित मात्र भी प्रमाद नहीं करना चाहिये।
सम्यग्दर्शन को जब यह जीव प्राप्त हो जाता है, तब परम सुखी हो जाता है और जब तक उस प्राप्त नहीं करता, तब तक दुःखी बना रहता है | सम्यग्दर्शन होते ही इसे दृढ़ श्रद्धान हा जाता है कि मैं शरीर नहीं हूँ और न ही शरीरादि परद्रव्य मेरे हैं। आज तक मैं भ्रम से शरीर को अपना मानकर व्यर्थ ही संसार में परिभ्रमण करता रहा। अपनी भूल का पता चल जाने से उसका जीवन परिवर्तित हो जाता है | सारे दुःखों का मूल कारण है, शरीर में अपनापन | जितना शरीर
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