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भूमिका
मंगलाचरण मंगलमय मंगल करण, वीतराग विज्ञान | नमो ताहि जातें भये, अरहंतादि महान || जा विद्यादि सागर सुधी, गुरु हैं हितैषी । शुद्धात्म में निरत, नित्य हितोपदेशी ।। वे पाप-ग्रीष्मऋतु में, जल हैं सयाने |
पूर्णां उन्हें सतत केवलज्ञान पाने ।। संसारी जीव अनादि काल से कर्म-संयुक्त दशा में पर-पदार्थों में इष्टानिष्ट की कल्पना करके रागी-द्वेषी होकर अपने स्वभाव को प्राप्त नहीं करने से संसार में परिभ्रमण कर रहा है। इस परिभ्रमण का मुख्य कारण मिथ्यादर्शन है। मिथ्यात्व के कारण यह जीव अपनी चैतन्यस्वरूपी आत्मा को नहीं पहचानता और इस पुद्गल शरीर को ही 'मैं' मान लेता है | सम्यग्दर्शन होने पर इस आत्मा और आत्मिक अतीन्द्रिय सुख पर सच्ची श्रद्धा हो जाती है | वह समझ जाता है यह सब दिखने वाला बाह्य जगत प्रपंच है, माया-जाल है, धोखा है। फिर वह संसार में नहीं फँसता, बल्कि संसार में रहता हुआ भी उससे विरक्त रहता है, जल में कमल की भांति भिन्न रहता है।
जाल में पक्षी उसी समय तक फँसत हैं, जब तक उन्हें यह पता