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नगर की ओर प्रस्थान किया। राजा ने अत्यन्त प्रसन्न होकर नगरद्वार से राजमहल तक मखमल के सुन्दर कालीन विछवा दिये | समस्त नगरवासियों ने भी अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने घरों में घी के दीपक जलाये | राजा ने सड़कों पर इत्र छिड़कवाया, पूरा नगर दुल्हन की तरह सजाया गया । परन्तु इस संसार में विध्नसंतोषी भी कम नहीं होते। अच्छे कामों में विध्न डालने में ही उन्हें वास्तविक आनन्द आता है। कोई भी कार्य सुचारु रूप से आनन्दपूर्वक सम्पन्न हो, यह उन्हें फूटी आँख भी नहीं सुहाता | बस, वे नारद जी बन जाते हैं। लोगों को आपस में लड़ाने में उन्हें बड़ा मजा आता है।
बस, इसी प्रकार एक विध्नसंतोषी व्यक्ति ने साधु महाराज के कान भर दिय, जैस मंथरा ने केकई के कान भरे थे | बाले-महाराज! आप वास्तव में अत्यन्त भोले और सीधे हैं, परन्तु यह दुनिया इतनी सीधी नहीं है | यह राजा आपका बचपन का मित्र है, यह अपना वैभव दिखाकर आपको नीचा दिखाना चाहता है। इसन नगर का इसलिये सजाया है कि उसकी चमक-दमक के सामने आपकी तपस्या फीकी दिखाई पड़े। कितना घमण्ड है, उन्हें अपने वैभव का?
साधु महाराज ने जैसे ही यह सब सुना तो उनकी मानकषाय उद्दीप्त हो गई और गुस्से से बोले-ठीक है, उन्हें कर लेने दीजिये अपने वैभव का प्रदर्शन | मैं भी कम तपस्वी नहीं हूँ | मैं भी उन्हें बता दूंगा।
और जब साधुजी नगर के तोरणद्वार पर पहुँचे तो वहाँ पर नगर के समस्त प्रतिष्ठित नर-नारियों ने, वृद्धों ने अत्यन्त श्रद्धापूर्वक उनका भाव-भीना स्वागत किया। ग्रीष्म ऋतु थी, चिलचिलाती धूप थी, किन्तु जब सबन देखा कि साधु महाराज के पैरों में घुटनां तक
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