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जाकर करनी अपनी निन्दा और भगवान की प्रशंसा । __ 'प्रभु पतित पावन, मैं अपावन ।' बस इतनी ही है पूजा | पूरी हो गई पूजा | बाकी तो सब इसी का विस्तार है और कुछ नहीं है | पूजा तो इसी लाइन में हो गई कि प्रभु पतित पावन, हम प्रशंसा कर सकें आपकी, और मैं अपावन, हम निन्दा कर सकें अपनी। पर बनना है मुझे भी पावन | ‘यों विरद आप निहार स्वामी मट जामन-मरण जी।' आप अपना कर्तव्य पहचानो ऐसा भगवान से कह रहे हैं इतना कहने का साहस किसके पास है? जो मृदु हो, श्रद्धावान् हो ।
हम मृदु बनें, श्रद्धावान बनें | अहंकार से तो सदा अहित ही होता है | अहंकार की कसौटी क्या है? हम कैस पहचानेंगे कि अब हमारे भीतर अहंकार आ गया? जब भी दूसरे क तिरस्कार करने का भाव, दूसरे के गुणों को सहन न करने का भाव, दूसरे से ईर्ष्या का भाव अपने भीतर दिखने लगे तो समझना कि अहंकार है | हम जरा-जरा सी चीज में अपना तिरस्कार महसूस करने लगते हैं या जैस ही दूसरे के गुण बढ़ते देखते हैं ता अपने को हीन समझने लगते हैं। ये जो हीनता की भावना हमारे भीतर आती है, ये ही अहंकार को जन्म दती है।
कोई हमारा सम्मान करे या न करे, हमें इसकी चिन्ता ज्यादा नहीं है, हमें चिन्ता यह हो जाती है कि हमारे सामने दूसरे का सम्मान न हा जाये |
दूसरे का हो रहा सम्मान, हमें लगता है जैसे हो रहा हमारा अपमान |