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ही मूढ़ हैं | पर्यायबुद्धि का छोड़कर अपने स्वभाव को देखो। मैं बड़ा बलवान हूँ, विवेकी हूँ, चतुर हूँ, यह सब पर्यायबुद्धि मान क उदय से होती है, जो सदा अहित करनेवाली होती है | जब तक मान रहता है, पर्यायबुद्धि रहती है, तब तक परिणामों में निर्मलता नहीं रह सकती। अहं करोति इति अहंकारः । 'मैं' करता हूँ, यह जा भाव है, यही अहंकार का भाव है। हम दा तरह से जीवन जी सकते हैं, एक तो अपने आप को इस संसार का कर्ता-धर्ता, सबकुछ मानकर जीना। ऐस भी लोग हैं जो इस तरह का जीवन जीते हैं। वे ऐसा माना करते हैं कि हम ही परिवार को चलाते हैं, हम ही अपने समाज को चला रहे हैं, देश को चला रहे हैं। ये जो फीलिंग है, ये ही अहंकार है। इसके रहते हमारी मृदुता चली जाती है। हम कठार हो जाते हैं। ____ मैं और मेरपन का भाव ही पर्यायबुद्धि है, जा सदा दुःख देनवाली है। मैं कुछ हूँ, यह एक तरह का पागलपन है और मैं कुछ नही हूँ, ये दूसरी तरह का पागलपन है | I am something and I am nothing. देखिय मैं कितना विनयवान हूँ, यह भी कम अहंकार नहीं है | मैं और मेरेपन को तोड़ने की प्रक्रिया ही मृदुता की प्रक्रिया है। मन्दिर, भगवान ये सब काहे के लिये हैं? हमारे अपने 'मैं' और 'मेरेपन' को तोड़ने क लिये । जितना-जितना हम अपने 'मैं' को बड़ा करते जाते हैं, उतना-उतना हमारा ‘मेरापन' भी बड़ा होता जाता है |
मेरे पास एक कार है, इसलिये मैं बड़ा हा गया । मेर पास एक बहुत अच्छा घर है, इसलिये मैं बड़ा हो गया। इस मैं और मेरेपन को दूर करने के लिये भगवान की पूजा है, भगवान की स्तुति है | पर हम किसी की पूजा भी नहीं कर पाते, किसी की स्तुति के भाव ही नहीं होते | दूसर की निन्दा के भाव तो होते हैं, पर प्रशंसा के भाव नहीं होते | शायद इसीलिये यह प्रक्रिया रखी गई है कि भगवान के सामने
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