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इस रूप पर अहंकार किया है, उस रूप की अंतिम परिणति यही रही है | किस रूप का अहंकार कर रहे हो? मक्खी के पंख के समान इस पतली चमड़ी की एक परत को यदि अलग कर दिया जाय तो तुम्हें इसका असली रूप समझ में आ जायेगा। जिस पर आज इतरा रहे हो, उसके अंदर के रूप का दखकर स्वयं अपनी ही आँखों को बंद कर लोगे | यह रूप का अभिमान करना भी व्यर्थ है।
गीता प्रेस से निकली एक पुस्तक में हनुमान प्रसाद पोतदार ने लिखा है कि भारतीय संस्कृति एक पवित्र संस्कृति है। भारतीय सतीनारी रूप-प्रदर्शन को शील का अपमान समझती है। उससे मद जागृत होता है और उसके बहुत सारे दुष्परिणाम निकलते हैं। यह भारतीय संस्कृति नहीं है | शा पाश्चात्य संस्कृति का अंग है | भारतीय संस्कृति में कदम-कदम पर मर्यादायें हैं | ___ रुक्मणी का पूर्व पर्याय में, जब उसका लक्ष्मीमती नाम था, अपन रूप का बड़ा अहंकार था। एक बार जब वह साज-श्रृंगार कर रही थी, उसी समय एक मुनिराज आहारचर्या क लिये वहाँ से निकल | दर्पण में मुनिराज के मलिन शरीर को देखकर उसे बड़ी ग्लानि हुई, उस समय उसके बड़े क्लिष्ट परिणाम हो गये, जिसक परिणामस्वरूप उसे उसी पर्याय में कुष्ट रोग हो गया और पर्याय-दर-पर्याय निम्न-निम्न पर्यायों में जन्म लेती रही और फिर एक दुर्गन्धा नाम की धीवर की कन्या हुई, जिसके शरीर से बहुत दुर्गन्ध आती थी। उसके माता-पिता उस बहुत दूर छोड़ आय थे। एक बार उन्हीं मुनिराज को देखकर उसे लगा कि मैंन इन मुनिराज को कहीं दखा है उसने विनम्रता स पूछा-महाराज! मुझ लगता है कि मैंने आपको कहीं देखा है? मुनिराज अवधिज्ञानी थे, उन्होंने अपने अवधिज्ञान को लगाकर उसकी पूर्व पर्याय को जान लिया | मुनिराज ने उस समझाकर कुछ व्रत दिय |
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