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इन व्रतों का निर्दोष पालन कर उसने धीरे-धीरे विकास किया और बाद में श्रीकृष्ण की पत्नी रुक्मणी बनी। इन रूप आदि का अहंकार करना व्यर्थ है । जो भी अहंकार करता है, उसका पतन हो जाता है और जब सद्बुद्धि / सद्ज्ञान आता है, तो उसका विकास शुरू हो जाता है ।
चौथा अहंकार है ऐश्वर्य का पूजा - प्रशंसा का । व्यक्ति यदि थोड़ा-सा ऐश्वर्य पा ले, थोड़ा-सा वैभव पा ले, तो ऐसा इतराता है कि उस जैसा दुनिया में कोई है ही नहीं। पर ध्यान रखना, जो अपने आपको बड़ा मानता है, उससे छोटा कोई नहीं है । आचार्यश्री ने एक जगह लिखा है- 'जो मानता स्वयं को सबसे बड़ा है, वह धर्म से अभी बहुत दूर खड़ा है। जो अपने ऐश्वर्य पर अभिमान करते हैं, वे ईश्वर को भूल जाते हैं । बड़े-बड़े ऐश्वर्यशाली राजा-महाराजाओं का ऐश्वर्य भी नहीं रहा । चक्रवर्ती की विभूति भी उनके साथ नहीं गई । जो आज राज्य का अधिपति है, कल वही अपने प्राण बचाने में भी असमर्थ होकर इधर-उधर छिपता फिरता है। 'जो आज एक अनाथ है, नरनाथ होता कल वही । जो आज उत्सव -मग्न है, कल शोक से रोता वही ।'
'ज्ञानार्णव' ग्रंथ में कहा है
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क्व मानो नाम संसारे, जन्तु व्रजविडम्बके ।
यत्र प्राणी नृपो भूत्वा विष्टामध्य कृमिर्भवेत ।।
संपूर्ण जीवों की विडम्बना करानेवाले इस संसार में मान किस वस्तु का किया जावे? इस संसार में राजा भी मरकर विष्टा में कीड़ा उत्पन्न होता देखा जाता है । फिर अभिमान किस बात का किया जाये ?
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